महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 19 श्लोक 16-38

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उन्नीसवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: उन्नीसवां अध्याय: श्लोक 30-66 का हिन्दी अनुवाद

तदनन्तर रात बीतनेपर वे द्विज प्रातःकाल उठे और उन्होंने स्नान करके अग्निवेदको प्रज्वलित किया। फिर मुख्य-मुख्य वैदिक मन्त्रोंसे अग्निदेवकी स्तुति करके ’रूद्राणी रूद्र’ नामक तीर्थमें गये और वहां सरोवरके तटपर कुछ कालतक विश्राम करते रहे। विश्राम के पश्चात् उठकर वे कैलासकी ओर चल दिये। कुछ दूर जानेपर उन्होंने कुबेरकी अलकापुरीका सुवर्णमय द्वार देखा, जो दिव्य दीतिप्तसे देदीप्यमान हो रहा था। वहीं महात्मा कुबेरकी कमलपुष्पोंसे सुशोभित एक बावड़ी देखी, जो गंगाजीके जलसे परिपूर्ण होनेके कारण मन्दाकिनी नामसे विख्यात थी। वहां जो उस पद्यपूर्ण पुष्करिणीकी रक्षा कर रहे थे, वे सब मणिभद्र आदि राक्षस भगवान अष्टावक्रको देखकर उनके स्वागतके लिये उठकर खड़े हो गये।। मुनिने भी उन भयंकर पराक्रमी राक्षसोंके प्रति सम्मान प्रकट किया और कहा-’आपलोग शीघ्र ही धनपति कुबेरको मेरे आगमनकी सूचना दे दें’।राजन्! वे राक्षस वैसा करके भगवान अष्टावक्रसे बोले-’प्रभो! राजा कुबेर स्वयं ही आपके निकट पधार रहे। ’आपका आगमन और इस आगमनका जो उदश्य है, वह सब कुछ कुबेरको पहलेसे ही ज्ञात है। देखिये, ये महाभारत धनाध्यक्ष अपने तेजसे प्रकाशित होते हुए आ रहे हैं’। तदनन्तर विश्रवाके पुत्र कुबेरने निकट आकर निन्दारहित ब्रहमार्षि अष्टावक्रसे विधिपूर्वक कुशल-समाचार पूछते हुए कहा-’ब्रहमान्! आप सुखपूर्वक यहां आये हैं न ? बताइये मुझसे किस कार्यकी सिद्धि चाहते हैं ? आप मुझसे जो-जो कहेगे, वह सब पूर्ण करूंगा। द्विजश्रेष्ठ!आप इच्छानुसार मेरे भवनमें प्रवेश कीजिये और यहांका सत्कार ग्रहण करके कृतकत्य हो यहांसे निर्विध्न यात्रा कीजियेगा। ऐसा कहकर कुबेरने विप्रवर अष्टावक्रको साथ लेकर अपने भवनमे प्रवेश किया और उन्हें पाद्य, अर्ध्य तथा अपना आसन दिया। जब कुबेर और अष्टावक्र दोनों वहां आरामसे बैठ गये तब कुबेर के सेवक मणिभद्र आदि यक्ष, गन्धर्व और किन्नर भी नीचे बैठ गये। उन सबके बैठ जानेपर कुबेरने कहा-’आपकी इच्छा हो तो उसे जानकर यहां अप्सराएं नृत्य करें; क्योंकि आपका आतिथ्य सत्कार और सेवा करना हमलोगोंका परम कर्तव्य है।तब मुनिने मधुर वाणीमें कहा, तथास्तु-ऐसा ही हो। तदनन्तर उर्वरा, मिश्रकेषी, रम्भा,उर्वशी,अलम्बुशा,घृताची,चित्रा,चित्रांगदा,रूचि,मनोहरा,सुकेशी,सुमुखी,हासिनी,प्रभा,विद्युता,प्रशमी,दान्ता,विद्योता और रति-ये तथा और भी बहुत-सी शुभलक्षणा अप्सराएं नृत्य करने लगीं और गन्धर्वगण नाना प्रकारके बाजे बजाने लगे। वह दिव्य नृत्य-गीत आरम्भ होनेपर महातपस्वी ऋषि अष्टावक्र भी दर्शक-मण्डलीमें आ बैठे और वे देवताओं के वर्षसे एक वर्षतक इसी आमोद-प्रमोदमें रमते रहे। तब राजा वैश्रवण (कुबेर)-ने भगवान अष्टावक्रसे कहा-विप्रवर! यहां नृत्य देखते हुए आपका एक वर्षसे कुछ अधिक समय व्यतीत हो गया है। ब्रहमान्! यह नृत्य-गीतका विषय जिसे गान्धर्वनाम दिया गया है बड़ा मनोहारी है; अतः यदि आपकी इच्छा हो तो यह आयोजन कुछ दिन और इसी तरह चलता रहे अथवा विप्रवर! आप जैसी आज्ञा दें वैसा किया जाय।। आप मेरे पूजनीय अतिथि हैं। यह घर आपका ही है। आप निस्संकोच भावसे शीघ्र ही सभी कार्योंके लिये हमें आज्ञा दें। हम आपके वशवर्ती किंकर है।। तब अत्यन्त प्रसन्न हुए भगवान अष्टावक्रने कुबेरसे कहा-धनेश्वर! आपने यथोचित रूपसे मेरा सत्कार किया है। अब आज्ञा दें, मैं यहांसे जाउंगा। धनाधिप! मैं बहुत प्रसन्न हूं। आपकी सारी बातें आपके अनुरूप ही हैं। भगवान्! अब मैं आपकी कृपासे उन महात्मा महर्षि वदान्यकी आज्ञाके अनुसार आगे जाउंगा। आप अभ्युदयशील एवं समृद्धिशाली हों।इतना कहकर भगवान अष्टावक्र उत्‍तर दिशाकी ओर मुंह करके चल दिये। एवं समूचे कैलास, मन्दराचल और हिमालयपर विचरण करने लगे। उन बड़े-बड़े पर्वतोंको लांघकर यतचित हो उन्होंने किरातवेशधारी महादेवजीके उतम स्थानकी परिक्रमा की और उसे मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। फिर नीचे पृथ्वीपर उत्‍तरकर वे उस स्थानके माहात्म्यसे तत्काल पवित्रात्मा हो गये। तीन बार उस पर्वतकी परिक्रमा करके वे उतराभिमुख हो समतल भूमिसे प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़े। आगे जानेपर उन्हें एक दूसरी रमणीय वनस्थली दिखायी दी, जो सभी ऋतुओंके फल-मूलों, पक्षिसमूहों और मनोरम वनप्रान्तोंसे जहां-तहां शोभासम्पन्न हो रही थी। वहां भगवान अष्टावक्रने एक दिव्य आश्रम देखा। उस आश्रयके चारों ओर नाना प्रकारके सुवर्णमय एवं रत्नभूशित पर्वत शोभा पा रहे थे। वहांकी मणिमयी भूमिपर कई सुन्दर बावडि़यां बनी थीं। इनके सिवा और भी बहुत-से सुरम्य दृष्य वहां दिखायी देते थे। उन सबको को देखते हुए उन भावितात्मा महर्षिका मन वहां विशेष आनन्दका अनुभव करने लगा।। महर्षिने उस प्रदेशमें एक दिव्य सुवर्णमय भवन देखा, जिसमें सब प्रकारके रत्न जड़े गये थे। वह मनोहर गृह कुबेरके राजभवनसे भी सुन्दर, श्रेष्ठ एवं अद्भूत था। वहां भांति भांतिके मणिमय और सुवर्णमय विशाल पर्वत शोभा पाते थे। अनेकानेक सुरम्य विमान तथा नाना प्रकारके रत्न दृष्टिगोचर होते थे। उस प्रदेशमें मन्दिाकिनी नदी प्रवाहित होती थी, जिसके स्त्रोतमें मन्दारके पुष्प बह रहे थे। वहां स्वयं प्रकाशित होनेवाली मणियां अपनी अद्भूत छटा बिखेर रही थी। वहां की भूमि हीरोंसे जड़ी गयी थी। उस आश्रमके चारों ओर विचित्र मणिमय तोरणोंसे सुशोभित, मोतीकी झालरोंसे अलंकृत तथा मणि एवं रत्नोंसे विभूषित सुन्दर शोभापर रहे थे। वे मनको मोह लेनेवाले तथा दृष्टिको बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लेनेवाले थे। उन मंगलमय भवनोंसे घिरा और ऋषि-मुनियोंसे भरा हुआ वह आश्रम बड़ा मनोहर जान पड़ता था। वहां पहुंचकर अष्टावक्रके मनमें यह चिन्ता हुई कि अब कहां ठहरा जाय। यह विचार उठते ही वे प्रमुख द्वारके समीप गये और खड़े होकर बोले।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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