महाभारत आदि पर्व अध्याय 70 श्लोक 17-32

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सप्ततितम (70) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: सप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद

वह वनमालिनी नदी के कछार में फैला हुआ था और ऊंची ध्वजाओं के समान ऊंचे वृक्षों से भरा होने के कारण अत्यन्त मनोहर जान पड़ता था। राजा ने इस प्रकार उत्तम गुणों से युक्त उस वन का भलीभांति अवलोकन किया। इस प्रकार राजा अभी वन की शोभा देख ही रहे थे कि उनकी दृष्टि एक उत्तम आश्रम पर पड़ी, जो अत्यन्त रमणीय और मनोरम था। वहां बहुत से पक्षी हर्षोल्लास से भरकर चहक रहे थे। नाना प्रकार के वृक्षों से भरपूर उस वन में स्थान-स्थान पर अग्निहोत्र की आग प्रज्वलित हो रही थी। इस प्रकार उस अनुपम आश्रम का श्रीमान् दुष्यन्त नरेश ने मन-ही-मन बड़ा सम्मान किया। वहां बहुत से त्यागी-विरागी, यती, बालखिल्य ऋषि तथा अन्य मुनिगण निवास करते थे। अनेकानेक अग्निहोत्र ग्रह उस आश्रम की शोभा बढ़ा रहे थे। वहां इतने फूल झड़ कर गिरे थे कि उनके बिछोने से बिछ गये थे। बड़े-बड़े तून के वृक्षों से उस आश्रम की शोभा बहुत बढ़ गयी थी। राजन् ! बीच में पुण्य सलिला मालिनी नदी वहती थी, जिसका जल बड़ा ही सुखद एवं स्वादिष्ट था। उसके दोनों तटों पर वह आश्रम फैला हुआ था। मालिनी में अनेक प्रकार के जल पक्षी निवास करते थे और तटवर्ती तपोवन के कारण उसकी मनोहरता और बढ गयी थी। वहां विषधर सर्प और हिंसक वन जन्तु भी सौम्य भाव (हिंसा शून्य कोमल प्रवृति) से रहते थे। यह सब देखकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। श्रीमान् दुष्यन्त नरेश अप्रतिरथ वीर थे- उस समय उनकी समानता करने वाला भूमण्डल में दूसरा कोई रथी योद्वा नहीं था। वे उक्त आश्रम के समीप जा पहुंचे, जो देवताओं का लोक प्रतीत होता था। वह आश्रम सब ओर से अत्यन्त मनोहर था। राजा ने आश्रम से सटकर बहने वाले पुण्य सलिला मानिली नदी की ओर भी दृष्टिपात किया; जो वहां समस्त प्राणियों की जननी-सी विराज रही थी। उसके तट पर चकवा-चकई किलोल कर रहे थे। नदी के जल में बहुत से फूल इस प्रकार बह रहे थे मानो फैन हों। उसके तट प्रान्त में किन्नरों के निवास स्थान थे। बानर और रीछ भी उस नदी का सेवन करते थे। अनेक सुन्दर कुलिन मालिनी की शोभा बढ़ा रहे थे। वेद-षास्त्रों के पवित्र स्वाध्याय की ध्वनि से उस सरिता का निकटवर्ती प्रदेश गूंज रहा था। मतवाले हाथी, सिंह और बड़े-बड़े सर्प भी मालिनी के तट का आश्रय लेकर रहते थे। उसके तट पर ही कश्‍यप गोत्रीय महात्मा कण्व का बह उत्तम एवं रमणीय आश्रम था। वहां महर्षियों के समुदाय निवास करते थे। उस मनोहर आश्रम और आश्रम से सटी हुई नदी को देखकर राजा ने उस समय उसमें प्रवेश करने का विचार किया। टापुओं से युक्त तथा सुरम्य तट वाली मालिनी नदी से सुशोभित वह आश्रम गंगा नदी से शोभायमान भगवान नर-नारायण के आश्रम सा जान पड़ता था। तदनन्तर नरश्रेष्ठ दुष्यन्त ने अत्यन्त उत्तम गुणों से सम्पन्न कश्‍यप गोत्रीय महर्षि तपोधन कण्व का, जिनके तेज का वाणी द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता, दर्शन करने के लिये कुबेर के चैत्र रथ वन के समान मनोहर उस महान् वन में प्रवेश किया, जहां मतवाले मयूर अपनी केका ध्वनि फैला रहे थे। वहां पहुंचकर नरेश, घोड़े, हाथी ओर पैदलों से भरी हुई अपनी चतुरांगिनी सेना को उस तपोवन के किनारे ठहरा दिया और कहा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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