महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 106 श्लोक 1-15
षडधिकशततम (106) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
नारदजी का दुर्योधन को समझाते हुए धर्मराज के द्वारा विश्वामित्रजी की परीक्षा तथा गालव के विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा मांगने के लिए हठ का वर्णन
जनमजेय ने कहा- भगवन् ! दुर्योधन का अनर्थकारी कार्यों में ही अधिक आग्रह था । पराये धन के प्रति अधिक लोभ रखने के कारण वह मोहित हो गया था । दुर्जनों में ही उसका अनुराग था । उसने मरने का ही निश्चय कर लिया था । वह कुटुम्बीजनों के लिए दुख:दायक और भाई-बंधुओं के शोक को बढ़ाने वाला था । सुहृदों को क्लेश पहुंचाता और शत्रुओं का हर्ष बढ़ाता था । ऐसे कुमार्ग पर चलनेवाले इस दुर्योधन को उसके भाई-बंधु रोकते क्यों नहीं थे ? कोई सुहृद, स्नेही अथवा पितामह भगवान व्यास उसे सौहार्दवश मना क्यों नहीं करते थे ? वैशम्पायनजी बोले - राजन् ! भगवान वेदव्यास ने भी दुर्योधन से उसकी हित की बात कही । भीष्मजी ने भी जो उचित कर्तव्य था, वह बताया । इसके सिवा नारदजी ने भी नाना प्रकार के उपदेश दिये । वह सब तुम सुनो । नारदजी ने कहा – अकारण हित चाहनेवाले सुहृद की बातों को जो मन लगाकर सुने, ऐसे श्रोता दुर्लभ हैं । हितैषी सुहृद भी दुर्लभ ही हैं, क्योंकि महान् संकट में सुहृद ही खड़ा हो सकता है, वहाँ भाई-बंधु नहीं ठहर सकते । कुरुनंदन ! मैं देखता हूँ कि तुम्हें अपने सुहृदों के उपदेश को सुनने की विशेष आवश्यकता है; अत: तुम्हें किसी एक बात का दुराग्रह नहीं रखना चाहिए । आग्रह का परिणाम बड़ा भयंकर होता है । इस विषय में विज्ञ पुरुष इस पुरातन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिससे ज्ञात होता है की महर्षि गालव ने हठ या दुराग्रह के कारण पराजय प्राप्त की थी । पहले की बात है, साक्षात धर्मराज महर्षि भगवान वशिष्ठ का रूप धारण करके तपस्या में लगे हुए विश्वामित्र के पास उनकी परीक्षा लेने के लिए आए । भारत ! धर्म सप्तर्षियों में से एक ( वशीष्ठजी ) का वेश धारण करके भूख से पीड़ित हो भोजन की इच्छा से विश्वामित्र के आश्रम पर आए । विश्वामित्रजी ने बड़ी उतावली के साथ उनके लिए उत्तम भोजन देने की इच्छा से यत्नपूर्वक चरुपाक बनाना आरंभ किया; परंतु ये अतिथिदेवता उनकी प्रतीक्षा न कर सके । उन्होनें जब दूसरे तपस्वी मुनियों का दिया हुआ अन्न खा लिया, तब विश्वामित्रजी भी अत्यंत उष्ण भोजन लेकर उनकी सेवा में उपस्थित हुये । उस समय भगवान धर्म यह कहकर कि मैंने भोजन कर लिया, अब तुम रहने दो, वहाँ से चल दिये । राजन् ! तब महातेजस्वी विश्वामित्र मुनि वहाँ उसी अवस्था में खड़े ही रह गए । कठोर व्रत का पालन करनेवाले विश्वामित्र ने दोनों हाथों से उस भोजनपात्र को थामकर माथे पर रख लिया और आश्रम के समीप हो ठूँठे पेड़ की भांति वे निश्चेष्ठ खड़े रहे । उस अवस्था में केवल वायु ही उनका आहार था । उन दिनों उनके प्रति गौरवबुद्धि, विशेष आदर सम्मान का भाव तथा प्रेम भक्ति होने के कारण उनकी प्रसन्नता के लिए गालव मुनि यत्नपूर्वक उनकी सेवा-शुश्रूषा में लगे रहते थे । तदनंतर सौ वर्ष पूर्ण होने पर पुन: धर्मदेव वसिष्ठ मुनि का वेश धारण करके भोजन की इच्छा से विश्वामित्र मुनि के पास आए ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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