महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 11 श्लोक 1-12

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Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:१२, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण
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एकादश (11) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन ने कहा-- भरतश्रेष्ठ! इसी विषय में जानकार लोग तापसों के साथ जो इन्द्रका संवाद हुआ था, उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं।

एक समय कुछ मन्दबुद्धि कुलीनब्राह्मणबालक घर को छोड़कर वन में चले जाये। अभी उन्हें मॅंछ-दाढ़ी तक नहीं आयी थी, उसी अवस्था में उन्होंने घर त्याग दिया। यद्यपि वे सब-के-सब धनी थे, तथापि भाई-बन्धु और माता-पिता को छोड़कर इसी को धर्म मानते हुए वनमें आकर ब्रहमचर्य का पालन करने लगे। एक दिन इन्द्रदेव ने उन पर कृपा की। भगवान् इन्द्र सुवर्णमय पक्षी का रूप धारण करके वहां आये और उनसे इस प्रकार कहने लगे-’यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करने वाले क्षेत्र पुरूषों ने जो कर्म किया है, वह दूसरों से होना अत्यन्त कठिन है। उनका यह कर्म बड़ा पवित्र और जीवन बहुत उत्तम कठिन है। उनका यह कर्म बड़ा पवित्र और जीवन बहुत उत्तम है। वे धर्मपरायण पुरूष सफल मनोरथ हो श्रेष्ठ गति को प्राप्त हुए हैं’।

ऋषि बोले- अहो! यह पक्षी तो विघसाशी (यज्ञशेष अन्न भोजन करने वाले) पुरूषों की प्रशंसा करता है। निश्चय ही यह हम लोगों की बड़ाई करता है; क्यों कि यहां हम लोग ही विघसाशी हैं।

उस पक्षी ने कहा-- अरे! देह में कीचड़ लपेटे और धूल पोते हुए जूठन खाने वाले तुम- जैसे मूर्खों मैं प्रशंसा नहीं कर रहा हॅू। विघसाशी तो दूसरे ही होते हैं।

ऋषि बोले-- पक्षी!यही श्रेष्ठ एवं कल्याणकारी साधन है, ऐसा समझकर ही हम इस मार्ग पर चल रहे हैं। तुम्हारी दृष्टि में जो श्रेष्ठ धर्म हो, उसे तुम्हीं बताओ। हम तुम्हारी बात पर अधिक श्रद्धा करते हैं।

पक्षी ने कहा-- यदि आप लोग मुझ पर संदेह न करें तो में स्वयं ही अपने आपको वक्ता के रूप में विभक्त करके आप लोगों को यथावत् रूप से हित की बात बताऊॅगा।

ऋषि बोले- तात! हम तुम्हारी बात सुनेंगे। तुम्हें सब मार्ग विदित हैं। धर्मात्मन्। हम तुम्हारी आज्ञा के अधीन रहना चाहते हैं। तुम हमें उपदेश दो।

पक्षी ने कहा- चैपायों में गौ श्रेष्ठ हैं, धातुओं में सोना उत्तम है, शब्दों में मन्त्र उत्कृष्ट है और मनुष्यों मेंब्राह्मणप्रधान है। यद्यपि वे सब-के-सब धनी थे, तथापि भाई-बन्धु और माता-पिता को छोड़कर इसी को धर्म मानते हुए वनमें आकर ब्रहमचर्य का पालन करने लगे। एक दिन इन्द्रदेव ने उन पर कृपा की। भगवान् इन्द्र सुवर्णमय पक्षी का रूप धारण करके वहां आये और उनसे इस प्रकार कहने लगे-’यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करने वाले क्षेत्र पुरूषों ने जो कर्म किया है, वह दूसरों से होना अत्यन्त कठिन है। उनका यह कर्म बड़ा पवित्र और जीवन बहुत उत्तम कठिन है। उनका यह कर्म बड़ा पवित्र और जीवन बहुत उत्तम है। वे धर्मपरायण पुरूष सफल मनोरथ हो श्रेष्ठ गति को प्राप्त हुए हैं’।

ऋषि बोले- अहो! यह पक्षी तो विघसाशी (यज्ञशेष अन्न भोजन करने वाले) पुरूषों की प्रशंसा करता है। निश्चय ही यह हम लोगों की बड़ाई करता है; क्यों ब्राह्मंणों के लिये मन्त्रयुक्त जातकर्म आदि संस्कार का विधान है। वह जब तक जीवित रहे, समय-समय पर उसके आवश्यक संस्कार होते रहने चाहिये, मरने पर भी यथासमय श्मशान भूमि में अन्त्येष्टि संकार तथा घर पर श्राद्ध आदि वैदिक विधि के अनुसार सम्पन्न होने चाहिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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