श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 53 श्लोक 49-57

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दशम स्कन्ध: त्रिपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (53) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः श्लोक 49-57 का हिन्दी अनुवाद

तब ब्राम्हणियों ने उन्हें प्रसाद देकर आशीर्वाद दिये और दुलहिन ने ब्राम्हणियों और माता अम्बिका को नमस्कार करके प्रसाद ग्रहण किया । पूजा-अर्चाकी विधि समाप्त हो जाने पर उन्होंने मौनव्रत तोड़ दिया और रत्नजटित अँगूठी से जगमगाते हुए कर कमल के द्वारा एक सहेली का हाथ पकड़ कर वे गिरिजामन्दिर से बाहर निकलीं ।

परीक्षित्! रुक्मिणीजी भगवान की माया के समान ही बड़े-बड़े धीर-वीरों को भी मोहित कर लेने वाली थीं। उनका कटिभाग बहुत सुन्दर और पतला था। मुखमण्डल पर कुण्डलों की शोभा जगमगा रही थी। वे किशोर और तरुण-अवस्था की सन्धि में स्थित थीं। नितम्ब पर जड़ाऊ करधनी शोभायमान हो रही थी, वक्षःस्थल कुछ उभरे हुए थे और उनकी दृष्टि लटकती हुई अलकों के कारण कुछ चंचल हो रही थी ।

उनके होंठों पर मनोहर मुसकान मुसकान थी। उसके दाँतों की पाँत थी तो कुन्दकली के समान लाल-लाल होठों की चमक से उस पर भी लालिमा आ गयी थी। उनके पाँवों के पायजेब चमक रहे थे और उनमें लगे हुए छोटे-छोटे घुँघरु रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। वे अपने सुकुमार चरण-कमलों से पैदल ही राजहंस की गति से चल रही थीं। उनकी वह अपूर्व छवि देखकर वहाँ आये हुए बड़े-बड़े यशस्वी वीर सब मोहित हो गये। कामदेव ने ही भगवान का कार्य सिद्ध करने के लिये अपने बाणों से उनका ह्रदय जर्जर कर दिया । रुक्मिणीजी इस प्रकार इस उत्सवयात्रा के बहाने मन्द-मन्द गति से चलकर भगवान श्रीकृष्ण पर अपना राशि-राशि सौन्दर्य निछावर कर रही थीं। उन्हें देखकर और उनकी खुली मुसकान तथा लजीली चितवन पर अपना चित्त लुटाकर वे बड़े-बड़े नरपति एवं वीर इतने मोहित और बेहोश हो गये कि उनके हाथों से अस्त्र-शस्त्र छूटकर गिर पड़े और वे स्वयं भी रथ, हाथी तथा घोड़ों से धरती पर आ गिरे । इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा करती हुई अपने कमल की कली के समान सुकुमार चरणों को बहुत ही धीरे-धीरे आगे बढ़ा रहीं थीं। उन्होंने अपने बायें हाथ की अँगुलियों से मुख की ओर लटकती हुई अलकें हटायीं और वहाँ आये हुए नरपतियों की ओर जलीजी चितवन से देखा। उसी समय उन्हें श्यामसुन्दर भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हुए । राजकुमारी रुक्मिणीजी रथ पर चढ़ना ही चाहती थीं कि भगवान श्रीकृष्ण ने समस्त शत्रुओं के देखते-देखते उनकी भीड़ में से रुक्मिणी को उठा लिया और उन सैकड़ों राजाओं राजाओं के सिर पर पाँव रखकर उन्हें अपने रथ पर बैठा लिया, जिसकी ध्वजा पर गरुड़ का चिन्ह लगा हुआ था । इसके बाद जैसे सिंह सियारों के बीच में से अपना भाग ले जाय, वैसे ही रुक्मिणीजी को लेकर भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी आदि यदुवंशियों के साथ वहाँ से चल पड़े । उस समय जरासन्ध के वशवर्ती अभिमानी राजाओं को अपना यह बड़ा भारी तिरस्कार और यश-कीर्ति नाश सहन न हुआ। वे सब-के-सब चिढ़कर कहने लगे—‘अहो, हमें धिक्कार है। आज हम लोग धनुष धारण करके खड़े ही रहे और ये ग्वाले, जैसे सिंह के भाग को हरिन ले जाय उसी प्रकार हमारा सारा यश छीन ले गये’।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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