श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 44 श्लोक 39-51
दशम स्कन्ध: चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः (44) (पूर्वार्ध)
कंस नित्य-निरन्तर बड़ी घबड़ाहट के साथ श्रीकृष्ण का ही चिन्तन करता रहता था। वह खाते-पीते, सोते-चलते, बोलते और साँस लेते—सब समय अपने सामने चक्र हाथ में लिये भगवान् श्रीकृष्ण को ही देखता रहता था। इस नित्य चिन्तन के फलस्वरूप—वह चाहे द्वेषभाव से ही क्यों न किया गया हो—उसे भगवान् के उसी रूप की प्राप्ति हुई, सारुप्य मुक्ति हुई, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े तपस्वी योगियों के लिये भी कठिन है । कंस के कंक और न्यग्रोध आदि आठ छोटे भाई थे। वे अपने बड़े भाई का बदला लेने के लिये क्रोध से आगबबूले होकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम की ओर दौड़े । जब भगवान् बलरामजी ने देखा कि वे बड़े वेग से युद्ध के लिये तैयार होकर दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने परिघ उठाकर उन्हें वैसे ही मार डाला, जैसे सिंह पशुओं को मार डालता है । उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। भगवान् के विभूतिस्वरुप ब्रम्हा, शंकर आदि देवता बड़े आनन्द से पुष्पों की वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं । महाराज! कंस और उसके भाइयों कि स्त्रियाँ अपने आत्मीय स्वजनों की मृत्यु से अत्यन्त दुःखित हुईं। वे अपने सिर पीटती हुई आँखों में आँसू भरे वहाँ आयीं । वीरशय्या पर सोये हुए अपने पतियों से लिपटकर वे शोकग्रस्त हो गयीं और बार-बार आँसू बहाती हुई ऊँचे स्वर से विलाप करने लगीं । ‘हा नाथ! हे प्यारे! हे धर्मज्ञ! हे करुणामय! हे अनाथवत्सल! आपकी मृत्यु से हम सबकी मृत्यु हो गयी। आज हमारे घर उजड़ गये। हमारी सन्तान अनाथ हो गयी । पुरुषश्रेष्ठ! इस पुरी के आप ही स्वामी थे। आपके विरह से इसके उत्सव समाप्त हो गये और मंगलचिन्ह उतर गये। यह हमारी ही भाँति विधवा होकर शोभाहीन हो गयी । स्वामी! आपने निरपराध प्राणियों के साथ घोर द्रोह किया था, अन्याय किया था; इसी से आपकी यह गति हुई। सच है, जो जगत् के जीवों से द्रोह करता है, उनका अहित करता है, ऐसा कौन पुरुष शान्ति पा सकता है ? ये भगवान् श्रीकृष्ण जगत् के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय के आधार हैं। यही रक्षक भी हैं। जो इसका बुरा चाहता है, इनका तिरस्कार करता है; वह कभी सुखी नहीं हो सकता ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्ण ही सारे संसार के जीवनदाता हैं। उन्होंने रानियों को ढाढ़स बँधाया, सान्त्वना दी; फिर लोक-रीति के अनुसार मरने वालों का जैसा क्रिया-कर्म होता है, वह सब कराया ।
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी ने जेल में जाकर अपने माता-पिता को बन्धन से छुड़ाया और सिर से स्पर्श करके उनके चरणों की वन्दना की । किंतु अपने पुत्रों के प्रणाम करने पर भी देवकी और वसुदेव ने उन्हें जगदीश्वर समझकर अपने ह्रदय से नहीं लगाया। उन्हें शंका हो गयी कि हम जगदीश्वर को पुत्र कैसे समझें ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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