महाभारत शल्य पर्व अध्याय 46 श्लोक 36-54

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:१९, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

षट्चत्वारिंश (46) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 36-54 का हिन्दी अनुवाद

वे वर देने में समर्थ, अपनी इच्छा के अनुसार चलने वाली और सदा आनन्द में निमग्न रहने वाली हैं। शत्रुओं को संताप देने वाले भरतश्रेष्ठ ! उन मातृकाओं में से कुछ यम की शक्तियां हैं, कुछ रुद्र की। कुछ सोम की शक्तियां हैं और कुछ कुबेर की। वे सबकी सब महान् बल से सम्पन्न हैं। इसी तरह कुछ वरुण की, कुछ देवराज इन्द्र की, कुछ अग्नि, वायु, कुमार, ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य तथा भगवान वराह की महाबलशालिनी शक्तियां हैं, जो रूप में अप्सराओं के समान मनोहारिणी और मनोरमा हैं । वे मीठी वाणी बोलने में कोयल और धनसमृद्धि में कुबेर के समान हैं। युद्ध में इन्द्र के सदृश पराक्रम प्रकट करने वाली तथा अग्नि के समान तेजस्विनी हैं । युद्ध छिड़ जाने पर वे सदा शत्रुओं के लिये भयदायिनी होती हैं। वे इच्छानुसार रूप धारण करने वाली तथा वायु के समान वेगशालिनी हैं । उनके बल, वीर्य और पराक्रम अचिन्त्य हैं। वे वृक्षों, चबूतरों और चैराहों पर निवास करती हैं । गुफाएं, श्मशान, पर्वत और झरने भी उनके निवास स्थान हैं। वे नाना प्रकार के आभूषण, पुष्पहार और वस्त्र धारण करती हैं । उनके वेश नाना प्रकार के और विचित्र हैं । वे अनेक प्रकार की भाषाएं बोलती हैं। ये तथा और भी बहुत से शत्रुओं को भयभीत करने वाले गण देवेन्द्र की सम्मति से महात्मा स्कन्द का अनुसरण करने लगे । नृपश्रेष्ठ ! तदनन्तर भगवान पाकशासन ने देवद्रोहियों के विनाश के लिये कुमार कार्तिकेय को शक्ति नामक अस्त्र प्रदान किया। साथ ही उन्होंने बड़े जोर से आवाज करने वाला एक विशाल घंटा भी दिया, जो अपनी उज्ज्वल प्रभा से प्रकाशित हो रहा था । भरतश्रेष्ठ ! भगवान पशुपति ने उन्हें अरुण अैर सूर्य के समान प्रकाशमान एक पताका और अपने सम्पूर्ण भूतगणों की विशाल सेना भी प्रदान की । वह भयंकर सेना धनंजय नाम से विख्यात थी। उसमें सभी सैनिक नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र, तपस्या, बल और पराक्रम से सम्पन्न थे। रुद्र के समान बलशाली तीस हजार रुद्रगणों से युक्त वह सेना शत्रुओं के लिये अजेय थी। वह कभी भी युद्ध से पीछे हटना जानती ही नहीं थी । भगवान विष्णु ने कुमार को बल बढ़ाने वाली वैजयन्ती माला दी और उमा ने सूर्य के समान चमकीले दो निर्मल वस्त्र प्रदान किये । गंगा ने कुमार को प्रसन्नतापूर्वक एक दिव्य अैर उत्तम कमण्डलु दिया, जो अमृत प्रकट करने वाला था। बृहस्पतिजी ने दण्ड प्रदान किया । गरुड ने विचित्र पंखों से सुशोभित अपना प्रिय पुत्र मयूर भेंट किया। अरुण ने लाल शिखा वाले अपने पुत्र ताम्रचूड ( मुर्ग ) को समर्पित किया, जिसका पैर ही आयुध था । राजा वरुण ने बल और वीर्य से सम्पन्न एक नाग भेंट किया और लोकस्त्रष्टा भगवान ब्रह्मा ने ब्रह्मणहितैषी कुमार को काला मृग चर्म तथा युद्ध में विजय का आशीर्वाद प्रदान किया । देवताओं का सेनापतित्व पाकर तेजस्वी स्कन्द अपने तेज से प्रज्वलित हो दूसरे अग्नि देव के समान सुशोभित होने लगे। तदनन्तर अपने पार्षदों तथा मातृकागणों के साथ कुमार कार्तिकेय ने देवेश्वरों को आनन्द प्रदान करते हुए दैत्यों के विनाश के लिये प्रस्थान किया ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।