महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 167 श्लोक 45-51
सप्तषष्टयधिकशततम (167) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
जो पूर्वजन्म की बातों को स्मरण करने वाले तथा वृद्धावस्था के विकार से यूक्त हैं, वे मनुष्य नाना प्रकार के सांसारिक दु:खों के उपभोग से निरन्तर पीड़ित हो मुक्ति की ही प्रशंसा करते हैं, परंतु हम लोग उस मोक्ष के विषय में जानते ही नहीं। स्वयम्भू भगवान ब्रह्माजी का कथन है कि जिसके मन में आसक्ति है, उसकी कभी मुक्ति नहीं होती। आसक्ति शून्य ज्ञानी मनुष्य ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं; अत: मुमुक्षु पुरूष को चाहिये कि वह किसी का प्रिय अथवा अप्रिय न करे। इस प्रकार विचार करना ही मोक्ष का प्रधान उपाय है, स्वेच्छाचार नहीं। विधाताने मुझे जिस कार्य में लगा दिया है, मैं उसे ही करता हूं। विधाता सभी प्राणियों को विभिन्न कार्यों के लिये प्रेरित करता है। अत: आप सब लोगों को ज्ञात होना चाहिये कि विधाता ही प्रबल है। मनुष्य कर्म द्वारा अप्राप्य अर्थ नहीं पा सकता। जो होनहार है, वही होता है; इस बात को तुम सब लोग जान लो। मनुष्य त्रिवर्ग से रहित होने पर भी आवश्यक पदार्थ को प्राप्त कर लेता है; अत: मोक्ष प्राप्ति का गूढ़ उपाय (ज्ञान) ही जगत् का वास्तविक कल्याण करने वाला है। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर की कही हुई बात बड़ी उत्तम, युक्तियुक्त और मन में बैठने वाली हुई। उसे पूर्णरूप से समझकर वे सब भाई बडे़ प्रसन्न हो हर्षनाद करने लगे। उन सबने कुरूकुल के प्रमुख वीर युधिष्ठिर को अञ्जलि बांधकर प्रणाम किया। जनमेजय! युधिष्ठिर की उस वाणी में किसी प्रकार का दोष नहीं था। वह अत्यन्त सुन्दर स्वर और व्यंञ्जन के संनिवेश से विभूषित तथा मन के अनुरूप थी, उसे सुनकर समस्त राजाओं ने युधिष्ठिर की भूरि–भूरि प्रशंसा की। पराक्रमी धर्मपुत्र महामना युधिष्ठिर ने भी उन समस्त विश्वासपात्र नरेशों एवं बन्धुजनों की प्रशंसा की और पुन: उदारचेता गङाग्नन्दन भीष्मजी के पास आकर उनसे उत्तम धर्म के विषय में प्रश्न किया।
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