महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 218 श्लोक 1-14

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अष्‍टादशाधिकद्विशततम (218) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टादशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

राजा जनक के दरबार में पंचशिखर का आगमन और उनके द्वारा नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्‍न आत्‍मा की नित्‍य सत्‍ता का प्रतिपादन

युधिष्ठिर ने पूछा – सदाचार के ज्ञाता पितामह ! मोक्षधर्म को जाननेवाले मिथिलानरेश जनक ने मानवभोगों का परित्‍याग करके किस प्रकार के आचरण से मोक्ष प्राप्‍त किया ? भीष्‍मजी ने कहा- राजन् ! इस विषय में विज्ञ पुरूष इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिसके आचरण से धर्मज्ञ राजा जनक महान् सुख (मोक्ष) को प्राप्‍त हुए थे। प्राचीनकाल की बात है, मिथिला में जनकवंशी राजा जनदेव राज्‍य करते थे । वे सदा देह-त्‍याग के पश्‍चात् आत्‍मा के अस्तित्‍वरूप धर्मो के ही चिन्‍तन में लगे रहते थे। उनके दरबार में सौ आचार्य बराबर रहा करते थे, जो विभिन्‍न आश्रमों के निवासी थे और उन्‍हें भिन्‍न-भिन्‍न धर्मो का उपदेश देते रहते थे। ‘इस शरीर को त्‍याग देने के पश्‍चात् जीव की सत्‍ता रहती है या नहीं, अथवा देह-त्‍याग के बाद उसका पुनर्जन्‍म होताहै या नहीं ’, इस विषय में उन आचार्यों का जो सुनिश्चित सिद्धान्‍त था, वे लोग आत्‍मतत्‍व के विषय में जैसा विचार उपस्थित करते थे, उससे शास्‍त्रानुयायी राजा जनदेव को विशेष संतोष नहीं होता था। एक बार कपिला के पुत्र महामुनि पंचशिख सारी पृथ्‍वी की परिक्रमा करते हुए मिथिला मे जा पहॅुचे। वे सम्‍पूर्ण संन्‍यास-धर्मों के ज्ञाता और तत्‍वज्ञान के निर्णय में एक सुनिश्चित सिद्धान्‍त के पोषक थे । उनके मन में किसी प्रकार का संदेह नहीं था। वे निर्द्वन्‍द्व होकर विचरा करते थे। उन्‍हें ऋषियों में अद्वितीय बताया जाता है । वे कामना से सर्वथा शून्‍य थे । वे मनुष्‍यों के हृदय में अपने उपदेश द्वारा अत्‍यन्‍त दुर्लभ सनातन सुख की प्रतिष्‍ठा करना चाहते थे। सांख्‍य के विद्वान् तो उन्‍हें साक्षात् प्रजापति महर्षि कपिल का ही स्‍वरूप बताते हैं । उन्‍हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो सांख्‍यशास्‍त्र के प्रवर्तक भगवान कपिल स्‍वयं पंचशिख के रूप में आकर लोगों को आश्‍चर्य में डाल रहे हैं। उन्‍हें आसुरि मुनि का प्रथम शिष्‍य और चिरंजीवी बताया जाता है । उन्‍होंने एक हजार वर्षों तक मानस यज्ञ का अनुष्‍ठान किया था। एक समय आसुरि मुनि अपने आश्रम में बैठे हुए थे । इसी समय कपिलमतावलम्‍बी मुनियों का महान् समुदाय वहॉ आया और प्रत्‍येक पुरूष के भीतर स्थित, अव्‍यक्‍त एवं परमार्थतत्‍व के विषय में उनसे कुछ कहने का अनुरोध करने लगा । उन्‍हीं में पंचशिख भी थे, जो पॉच स्‍त्रोतों (इन्द्रियों) वाले मन के व्‍यापार (ऊहापोह) में कुशल थे, पंचरात्र आगम के विशेषज्ञ थे, पॉच कोशों के ज्ञाता और तद्विषयक पॉच प्रकार की उपासनाओं के जानकार थे । शम, दम, उपरति, तितिक्षा और समाधान इन पॉच गुणों से भी युक्‍त थे । उन पॉचों कोशों से भिन्‍न होने के कारण उनके शिखास्‍थानीय जो ब्रह्रा है, वह पंचशिख कहा गया है । उसके ज्ञाता होने से ऋषियों को भी ‘पंचशिख’ माना गया है। आसुरि तपोबल से दिव्‍य दृष्टि प्राप्‍त कर चुके थे । ज्ञानयज्ञ के द्वारा सिद्धि प्राप्‍त करके उन्‍होंने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को स्‍पष्‍टरूप से समझ लिया था। जो एकमात्र अक्षर और अविनाशी ब्रह्रा नाना रूपों में दिखायी देता है, उसका ज्ञान आसुरि ने उस मुनिमण्‍डली में प्रतिपादित किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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