महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 280 श्लोक 1-16
अषीत्यधिकद्विशततम (280) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
वृत्रासुरको सनत्कुमार का अध्यात्मविषयक उपदेश देना और उसकी परमगति तथा भीष्म द्धारा युधिष्ठिर की शंका का निवारण
शुक्राचार्य ने कहा— तात ! आकाशसहित यह सारी पृथ्वी जिनकी भुजाओं के बल पर स्थित है, महान् प्रभावशाली उन भगवान विष्णुदेव को नमस्कार है । दानवश्रेष्ठ ! जिनका मस्तक और स्थान भी अन्नत है, उन भगवान विष्णु का उत्तम माहात्म्य मैं तुम्हें बताऊँगा । शुक्राचार्य और वृत्रासुर में ये बातें हो ही रही थीं कि वहाँ महामुनि धर्मात्मा उनके संशय का निवारण करने के लिये आ पहुँचे । राजन् ! असुरराज वृत्र और मुनि शुक्राचार्य के द्धारा पूजित हो मुनिवर सनत्कुमार एक बहुमूल्य सिंहासन पर विराजमान हुए । जब महाज्ञानी सनत्कुमार आराम से बैठ गये, तब शुक्राचार्य ने उनसे कहा-‘भगवन् ! आप इस दानवराज को भगवान विष्णु का माहात्म्य बताइये’ । यह सुनकर सनत्कुमार ने बुद्धिमान दानवराज वृत्रासुर के प्रति भगवान विष्णु की महिमा से युक्त यह सार्थक वचन कहा- ‘शत्रुओं को संताप देने वाले दैत्य ! भगवान विष्णु का यह सम्पूर्ण उत्तम माहात्म्य सुनो - तुम्हें यह मालुम होना चाहिये कि यह समस्त संसार भगवान विष्णु में ही स्थित है । ‘पर महाबाहो ! ये श्री विष्णु ही सम्पूर्ण चराचर प्राणिसमुदाय सृष्टि करते हैं और ये ही समय आने पर उसका विनाश करते हैं एवं समय आने पर पुनः सृष्टि भी करते हैं । ‘समस्त प्राणी इन्हीं में लय को प्राप्त होते हैं और इन्हीं से प्रकट भी होते हैं। इन्हें कोई शास्त्र ज्ञान, तपस्या और यज्ञ के द्वारा भी नहीं पा सकता। केवल इन्द्रियों के संयम से ही उनकी उपलब्धि हो सकती है । ‘जो ब्राहृा (यज्ञ आदि) और आभ्यन्तर (शम, दम आदि) कर्मों में प्रवृत होकर मन के विषय में स्थिरता प्राप्त करके अर्थात् मन को स्थिर करके बुद्धि के द्वारा उसे निर्मल बनाता है, वह परलोक में अक्षय सुख (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है । ‘जैसे सोनार बारंबार किये हुए अपने महान् प्रत्यन के द्वारा चाँदी को आग में डालकर उसे शुद्ध करता है, उसी प्रकार जीव सैकड़ों जन्मों में अपने मन को शुद्ध कर पाता है; परंतु इस यज्ञ आदि और शम-दम आदि कर्मों द्वारा यदि वह महान् प्रयत्न करे तो एक ही जन्म में शुद्ध हो जाता है । ‘जैसे अपने शरीर में लगी हुई थोड़ी-सी धूल को मनुष्य साधारण चेष्टा से खेल-खेल में ही झाड़-पोछ देता है, उसी प्रकार बारंबार किये हुए महान् प्रयत्न से वह अपने राग द्वेष आदि दोषों को भी दूर कर सकता है । ‘जैसे थोड़े-से पुष्प एवं माला द्वारा वासित किया हुआ तिल और सरसों का तेल अपनी गन्ध नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार थोड़ें-से प्रयत्न से न तो दोष दूर होते हैं और न सूक्ष्म ब्रह्मका साक्षात्कार ही हो पाता है । ‘वही तिल या सरसों का तेल बहुत-से सुगन्धित पुष्पों द्वारा बारंबार वासित होने पर अपनी गन्ध को छोड़ देता है और उस फूल की गन्ध में ही स्थित हो जाता है। उसी प्रकार सैकड़ों जन्मों में स्त्री-पुत्र आदि के संसर्ग से युक्त तथा सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों द्वारा प्रवर्तित दोष समूह बुद्धि तथा अभ्यासजनित यत्न से निवृत्त हो पाता है ।
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