महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 347 श्लोक 38-54
तीन सौ सैंतालीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)
वेदों का अपहरण हो जाने पर ब्रह्माजी को बड़ा खेद हुआ। उनपर मोह छा गया। वे वेदों से वंचित होकर मन-ही-मन परमात्मा से इस प्रकार कहने लगे।
ब्रह्मा बोले - भगवन् ! वेद ही मेरे उत्तम नेत्र हैं, वेद ही मेरे परम बल हैं। वेद ही मेरे परम आश्रय तथा वेद ही मेरे सर्वोत्तम उपास्य देव हैं। मेरे वे सभी वेद आज दो दानवों ने बलपूर्वक यहाँ से छीन लिये हैं। अब वेदों के बिना मेरे लिये सम्पूर्ण लोक अन्धकारमय हो गये हैं। मैंवेदों के बिना संसार की उत्तम सृष्टि कैसे कर सकता हूँ , अहो ! आज वेदों के नष्ट होने से मुझ पर बड़ा भारी दुःख आ पड़ा है, जो मेरे शोमग्न हृदय को दुःयह पीड़ा दे रहा है। आज शोक के समुद्र में डूबे हुए मुझ असहाय का यहाँ से कौन उद्धार करेगा ? उन नष्ट हुए वेदों को कौन लायेगा ? मैं किसको इतना प्रिय हूँ, जो मेरी ऐसी सहायता करेगा ? नृपश्रेष्ठ ऐसी बातें कहते हुए ब्रह्माजी के मन में भगवान श्रीहरि की स्तुति करने का विचार उत्पन्न हुआ। बुद्धिमानों में अग्रगण्य नरेश ! तब भगवान ब्रह्मा ने हाथ जोड़कर उत्तम एवं जपने योग्य स्त्रोत का गान आरम्भ किया।
ब्रह्माजी बोले - प्रभो ! वेद आपका हृदय है, आपको नमस्कार है। मेरे पूर्वज ! आपको प्रणाम है। जगत् के आदि कारण ! भुवनश्रेष्ठ ! सांख्ययोगनिधे ! प्रभो ! आपको बारेबार नमस्कार है। व्यक्त जगत् और अव्यक्त प्रकृति को उत्पन्न करने वाले परमात्मन् ! आपका स्वरूप अचिन्त्य है। आप कल्याणमय मार्ग में स्थित हैं। विश्वपालक ! आप सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तरात्मा, किसी याोनि से उत्पन्न न होने वाले, जगत् के आधार और स्वयम्भू हैं। मैं आपकी कृपा से उत्पन्न हुआ हूँ। आपसे मेरा प्रथम बार जो जन्म हुआ था, वह द्विजों द्वारा सम्मानित मानप-जन्म कहा गया है अर्थात् प्रथम बार में आपके मन से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर पूर्वकाल में मैं आपके नेत्र से उत्पन्न हुआ। वह मेरा दूसरा जन्म था। तत्पश्चात् आपके कृपाप्रसाद से मेरा जो तीसरा महत्त्वपूर्ण जन्म हुआ, वह वाचिक था अर्थात् आपके वचनमात्र से सुलभ हो गया था। विभो ! उसके बाद आपके कानों से मेरा चतुर्थ जन्म हुआ था। उसके बाद आपकी नासिका से मेरा पाँचवाँ उत्तम जन्म बताया जाता है। तदनन्तर मैं आपके क्षरा ब्रह्माण्ड से उत्पन्न किया गया। वह मेरा छठा जन्म था। प्रभो ! यह मेरा सातवाँ जन्म है, जो कमल से उत्पन्न हुआ है। त्रिगुणातीत परमेश्वर ! मैं प्रत्येक कल्प में आपका पुत्र होकर प्रकट होता हूँ। कमलनयन ! आपका पुत्र में शुद्ध सत्त्वमय शरीर से उत्पन्न् हुआ हूँ। आप ईश्वर, स्वभाव, स्वयम्भू एवं पुरुषोत्तम हैं। आपने मुझे वेदरूपी नेत्रों से युक्त बनाया है। आपकी ही कृपा से कालातीत हूँ - मुझ पर काल का जोर नहीं चलता। मेरे नेत्ररूप वे वेद दानवों द्वारा हर लिये गये हैं; अतः मैं अन्धा-सा हो गया हूँ। प्रभो ! निद्रा त्याग कर जागिये। मुझे मेरे नेत्र वापस दीजिये; क्योंकि मैं आपका प्रिय भक्त हूँ और आप मेरे प्रियतम स्वामी हैं। रह्माजी के इस प्रकार स्तुति करने पर सब ओर मुख वाले सबके अन्तर्यामी आत्मा भगवान ने उसी क्षण निद्रस त्याग दी और वे वेदों की रक्षा करने के लिये उद्यत हो गये। उन्होंने अपने ऐश्वर्य के योग से दूसरा शरीर धारण किया, जो चन्द्रमा के समान कान्तिमान् था। सुन्दर नासिका वाले शरीर से युक्त हो वे प्रभु घोड़े के समान गर्दन और मुख धारण करके स्थित हुए। उनका वह शुद्ध मुख सम्पूर्ण वेदों का आलय था। नक्षत्रों और ताराओं से युक्त स्वर्गलोक उनका सिर था। सूर्य की किरणों के समान चमकीले बड़े-बड़े बाल थे। आकाश और पाताल उनके कान थे एवं समस्त भूतों को धारण करने वाली पृथ्वी ललाट थी। गंगा और सरस्वती उनके नितम्ब तथा दो समुद्र उनकी दोनों भौंहें थे। चन्द्रमा और सूर्य उनको दोनो नेत्र तथा नासिका संध्या थी। ऊँकार संस्कार (आभूषण) और विद्युत जिव्हा बनी हुई थी। राजन् ! सोमपान करने वाले पितर उनके दाँत सुने गये हैं तथा गोलोक और ब्रह्मलोक उन महात्मा के ओष्ठ थे। नरेश्वर ! तमोमयी कालरात्रि उनकी ग्रीवा थी। इस प्रकार अनेक मूर्तियों से आवृत्त हयग्रीव रूप धारण करके वे जगदीश्वर श्रीहरि वहाँ से अन्तर्धान हो गये और रसातल में जा पहुँख्चे। रसातल में प्रवेश करके परम योग का आश्रय ले शिक्षा के नियमानुसार उदात्त आदि स्वरों से युक्त उच्च स्वर से सामवेद का गान करने लगे। नाद और स्वर से विशिष्ट सामगान की वह सर्वथा स्निग्ध एवं मधुर ध्वनि रसातल में सब ओर फैल गयी, जो समस्त प्राणियों के लिये गुणकारक थी। उन दोनों असुरों ने वह याब्द सुनकर वेदों को कालपाश से आबद्ध करके रसातल में फेंक दिया और स्वयं उसी ओर दौड़े जिधर से वह ध्वनि आ रही थी। । राजन् ! इसी बीच में हयग्रीव रूपधारी भगवान श्रीहरि ने रसातल में पड़े हुए उन वेदों को ले लिया तथा ब्रह्माजी को पुनः वापस दे दिया और फिर वे अपने आदि रूप में आ गये। भगवान ने महायागर के पूर्वोत्तर भाग में वेदों के आश्रयभूत अपने हयग्रीव रूप की स्थापना करके पुनः पूर्वरूप धारण कर लिया। तब से भगवान हयग्रीव वहीं रहने लगे। इधर वेदध्वनि के स्थान पर आकर मधु और कैटभ दोनों दानवों ने जब कुछ नहीं देखा, तब वे बड़े वेग से फिर वहीं लौट आये, जहाँ उन वेदों को नीचे डाल रखा था। वहाँ देखने पर उन्हें वह स्थान सूना ही दिखायी दिया।
« पीछे | आगे » |