महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 59 श्लोक 81-99
एकोनषष्टित्तम (59) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
विशालाक्ष भगवान शिव ने प्रजावर्ग की आयु का ह्रास होता जानकर ब्र्रह्याजी के रचे हुए इस महान अर्थं से भरे हुए शास्त्र को संक्षिप्त किया था; इसलिये इसका नाम ’वैशालक्ष’ हो गया। फिर इसे इन्द्र ने ग्रहण किया। महातपस्वी सुब्रह्यण्य भगवान पुरन्दर ने जब इसका अध्ययन किया, उस समय इसमें दस हजार अध्याय थे। फिर उन्होंने भी इसका संक्षेप किया, जिससे यह पाँच हजार अध्यायों का ग्रंथ हों गया। तात ! वही ग्रंथ ’बाहुदन्तक’ नामक नीतिशास्त्र के रूप में विख्यात हुआ। इसके बाद सामथ्र्यशाली बृहस्पति ने अपनी बुद्धि से इसका संक्षेप किया, तब से इसमें तीन हजार अध्याय रह गये। यही ’बार्हस्पत्य’ नामक नीतिशास्त्र कहलाता हैं। फिर महायशस्वी, योगाशास्त्र के आचार्य तथा अमित बुद्धिमान शुक्राचार्यं ने एक हजार अध्यायों में उस शास्त्र का संक्षेप किया। इस प्रकार मनष्यों की आयु का ह्यास होता जानकर जगत् के हित के लिये महर्षियों ने इस शास्त्र का संक्षेप किया हैं। तदनन्तर देवताओं ने प्रजापति भगवान विष्णु के पास जाकर कहा-’भगवन्! मनुष्यों में जो एक पुरूष सबसे श्रेष्ठ पद प्राप्त करने का अधिकारी हो, उसका नाम बताइये’। तब प्रभावशाली भगवान नारायण देव ने भली-भाँति सोच-विचारकर अपने तेज से एक मानस पुत्र की, जो विरजा के नाम से विख्यात हुआ। पाण्डुनन्दन! महाभाग विरजा ने पृथ्वी पर राजा होने की इच्छा नहीं की। उनकी बुद्धि ने सन्यास लेने का ही निश्चय किया। विरजा के कीर्तिमान् नामक एक पुत्र हुआ। वह भी पाँचों विषयों से ऊपर उठकर मोक्षमार्ग का ही अवलम्बन करने लगा। कीर्तिमान् के पुत्र हुए कर्दम। वे भी बड़ी भारी तपस्या में लग गयें। प्रजापति कर्दम के पुत्र का नाम अनंग था, जो कालक्रम से प्रजा का संरक्षण करने में समर्थं, साधु तथा दण्डनीति विद्या में निपुण हुआ। अनंग के पुत्र का नाम था अतिबल। वह भी नीतिशास्त्र का ज्ञाता था, उसने विशाल राज्य प्राप्त किया। राज्य पाकर वह इन्ंिद्रयों का गुलाम हो गया। राजन्! मृत्यु की एक मानसिक कन्या थी, जिसका नाम था सुनीथा। जो अपने रूप और गुण के लिये तीनों लोकों में विख्यात थी। उसी ने वेन को जन्म दिया था। वेन राग-द्वेष के वशीभूत हो प्रजाओं पर अत्याचार करने लगा। तब वेदवादी ऋषियों ने मन्त्रपूत कुशों द्वारा उसे मार ड़ाला। फिर वे ही ऋषि मन्त्रोच्चारणपूर्वक वेन की दाहिनी जंघा का मंथन करने लगे। उससे इस पृथ्वी पर एक नाटे कद का मनुष्य उत्पन्न हुआ, जिसकी आकृति बेडौल थी। वह जले हुए खम्भे के समान जान पड़ता था। उसकी आँखें लाल और काले बाल थे। वेदवादी महर्षियों ने उसे देखकर कहा- निषीद’ बैठ जाओ। उसी से पर्वतों और वनों में रहने वाले क्रूर निषादों की उत्पति हुई तथा दूसरे जो विन्ध्यगिरी के निवासी लाखों म्लेच्छ थे, उनका भी प्रादुर्भाव हुआ। इसके बाद फिर महर्षियों ने वेन के दाहिने हाथ का मन्थन किया। उससे एक-दूसरे पुरूष का प्राकटय हुआ, जो रुप में देवराज इन्द्र के समान थें। वे कवच धारण किये, कमर में तलवार बाँधे तथा धनुष और बाण लिये प्रकट हुए थे। उन्हें वेदों और वेदान्तों का पूर्ण ज्ञान था। वे धनुर्वेद के भी पारंगत विद्वान थे।
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