महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 21 श्लोक 1-20
इक्कीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)
देवस्थान कहते हैं- राजन्! इस विषय में लोग इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। किसी समय इन्द्र के पूछने पर बृहस्पति ने इस प्रकार कहा था-। ’राजन्! मनुष्य के मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है। संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि मन में भलीभाति प्रतिष्ठित हो जाय तो उससे बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है। जैसे कछुआ अपने अंगों को सब ओर से सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार जब मनुष्य अपनी सब कामनाओं को सब ओर से समेट लेता है, उस समय तुरंत ही ज्योतिःस्वरूप आत्मा अपने अन्तःकरण में प्रकाशित हो जाता है। ’जब मनुष्य किसी से भय नहीं मानता और जब उससे भी दूसरे प्राणी भय नहीं मानते तथा ज बवह काम (राग) और द्वेष को जीत लेता है, तब अपने आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर लेता है। ’जब वह मन, वाणी और क्रिया द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों में से किसी के साथ न तो द्रोह करता है और न किसी की अभिलाषा ही रखता है, तब परब्रहम परमात्मा को प्राप्त हो जाता है,। कुन्तीनन्दन! इस प्रकार सम्पूर्ण जीव उस-उस धर्म का उसी-उसी प्रकार से जब ठीक-ठीक पालन करते हैं, तब स्वयं आत्मा से परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं; अतः भरतनन्दन! इस समय तुम अपना कर्तव्य समझो। कुछ लोग साम (प्रेमपूर्ण बर्ताव) की प्रशंसा करते हैं और कोई व्यायाम (यत्न और परिश्रम) के गुण गाते हैं। कोई इन दोनों में से एक (साम) की प्रशंसा नहीं करते हैं तो कोई दूसरे (व्यायाम) की तथा कुछ लोग दोनों की ही बड़ीप्रशंसा करते हैं। कोई यज्ञ को ही अच्छा बताते हैं तो दूसरे लोग संन्यास की ही सराहना करते हैं। कोई दान देने के प्रशंसक हैं तो कोई दान लेने के । कोई सब छोड़कर चुपचाप भगवान के ध्यान में लगे रहते हैं और कुछ लोग मार-काट मचाकर शत्रुओं की सेना को विदीर्ण करके राज्य पाने के राज्य पाने के अनन्तर प्रजापालन रूपी धर्म की प्रशंसा करते हैं तथा दूसरे लोग एकान्त में रहकर आत्मचिन्तन करना अच्छा समझते हैं। इन सब बातों पर विचार करके विद्वानों ने ऐसा निश्चय किया हे कि किसी भी प्राणी से द्रोह न करके जिस धर्मका पालन होता है,वही साधु पुरूषों की राय में उत्तम धर्म है। किसी से द्रोह न करना,सत्य बोलना, (बलिवैश्वदेव कर्मद्वारा) समस्त प्राणियों को योग्य उनका भाग समपिर्त करना, सबके प्रति दयाभाव बनाये रखना, मन और इन्द्रियों का संयम करना, अपनी ही पत्नी से संतान उत्पन्न करना तथा मृदुता, लज्जा एवं अचलता आदि गुणों को अपनाना- ये श्रेष्ठ एवं अभीष्ट धर्म हैं, ऐसा स्वायम्भुव मनुका कथन है। कुन्तीनन्दन! अतः तुम भी प्रयत्नपूर्वक इस धर्म का पालन करो। जो क्षत्रियनरेश राज्यसिंहासन पर स्थित हो अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को सदा अपने अधीन रखता है, प्रिय और अप्रिय को समान दृष्टि से देखता है, यज्ञ से बचे हुए अन्न का भोजन करता है, शास्त्रों के यथार्थ रहस्य को जानता है, दुष्टों का दमन और साधु पुरूषों का पालन करता है, समस्त प्रजा को ध्र्मा के मार्ग में स्थापित करके स्वयं भी धर्मानुकूल बर्ताव करता है, वृद्धावस्था में राजलक्ष्मी को पुत्र के अधीन करके वन में जाकर जंगली फल-मूलों का आहार करते हुए जीवन बिताता है तथा वहां भी शास्त्र-भवन से ज्ञात हुए शास्त्राविहित कर्मां का आलस्य छोड़कर पालन करता है, ऐसा बर्ताव करने वाला वह राजा ही धर्म को निश्चित रूप से जानने और माननेवाला है। उसका यह लोक और परलोक दोनां सफल हो जाते हैं, मेरा यह विश्वास है कि संन्यास के द्वारा निर्वाण प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर एवं दुर्लभ है; क्यों कि उसमे बहुत से विघ्न आते हैं। इस प्रकार धर्म का अनुसरण करने वाले, सत्य,दान और तप में सलंग्न रहने वाले, दया आदि गुणों से युक्त, काम-क्रोध आदि दोंषों से रहित, प्रजापालनपरायण, उत्तम धर्मसेवी तथा गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा के लिये युद्ध करने वाले नरेशों ने परम उत्तम गति प्राप्त की है। शत्रुओं को संताप देने वाले युधिष्ठर! इसी प्रकार रूद्र, वसु, आदित्य, साध्यगण तथा राजर्षिसमूहों ने सावधान होकर इस धर्म का आश्रय लिया है। फिर उन्होनें अपने पुण्यकर्मा द्वारा स्वर्गलोक प्राप्त किया है। ।
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