महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 341 श्लोक 20-37

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तीन सौ इकलीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : तीन सौ इकलीसवाँ अध्याय: श्लोक 31-51 का हिन्दी अनुवाद

भरतनन्दन ! भूत, भेवष्य और वर्तमान तीनों कालों मे होने वाले समसत पुरुषों के भगवान विष्णु ही अग्रगण्य हैं; अतः सबको सदा उन्हीं की सेवा-पूजा करनी चाहिये। कुन्ती कुमार ! तुम हवयदाता विष्णु को नस्कार करो, शरणदाता श्रीहरि को शीश झुकाओ, वरदाता विष्णु की वन्दना करो तथा हव्यकव्य भोक्ता भगवान को प्रणाम करो। तुमने मुझसे सुना है कि आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी - ये चार प्रकार के मनुष्य मेरे भक्त हैं। इनमें जो एकान्ततः मेरा ही भजन करते हैं, दूसरे देवताओं को अपना आराध्यनहीं मानते वे सबसे श्रेष्ठ हैं। निष्काम भाव से समस्त कर्म करने वाले उन भक्तों की परमगति मैं ही हूँ।। जो शेष तीन प्रकार के भक्त हैं, वे फल की इच्छा रखने वाले माने गये हैं। अतः वे सभी नीचे गिरनेवाले होते हैं - पुण्यभोग के अनन्तर स्वर्गादि लोाकों से च्युत हो जाते हैं, परंतु ज्ञानी भक्त सर्वश्रेष्ठ फल (भगवत्प्राप्ति) का भागी होता है। ज्ञानी भक्त ब्रह्मा, शिव तथा दूसरे देवताओं की निष्काम भाव से सेवा करते हुए भी अन्त में मुझ परमात्मा को ही प्राप्त होते हैं। पार्थ ! यह मैंने तुमसे भक्तों का अन्तर बतलाया है। कुन्तीनन्दन ! तुम और मैं दोनों ही नर-नारायण नामक ऋषि हैं और पृथ्वी का भार उतारने के लिये हमने मानव-शरीर में प्रवेश किया है। भारत ! मैं अध्यात्म योगों को जानता हूँ तथा मैं कौन हूँ और कहाँ से आया हूँ - इस बात का भी मुझे ज्ञान है। लौकिक अभ्युदय का साधक प्रवृत्तिधर्म और निःश्रेयस प्रदान करने वाला निवृत्तिधर्म भी मुझसे आात नहीं है। एकमात्र मैं सनातन पुरुष ही सम्पूर्ण मनुष्यों का सुविख्यात आश्रयभूत नारायण हूँ। नर से उत्पन्न होने के कारण जल को नार कहा गया है। वह नार (जल) पहले मेरा अयन (निवास स्थान) था; इसलिये ही मैं ‘नारायण’ कहलाता हूँ। (जो सबमें व्याप्त हो अथवा जो किसी का निवास स्थान हो, उसे वासु कहते हैं) मैं ही सूर्यरूप धारण करके अपनी किरणों से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करता हूँ तथा मै ही सम्पूर्ण प्राणियों का वासस्थान हूँ, इसलिये मेरा नाम ‘वासुदेव’ है। भारत ्! मैं सम्पूर्ण प्राणियों की गति और उत्पत्ति का स्थान हूँ। पार्थ ! मैंने आकाश और पृथ्वी को व्याप्त कर रखा है। मेरी कान्ति सबसे बढ़कर है। भरतनन्दन ! समस्त प्राणी अन्तकाल में जिस ब्रह्म को पाने की इच्छा करते हैं, वह भी मैं ही हूँ। कुन्तीकुमार ! मैं सबका अतिक्रमण करके स्थित हूँ। इन सभी कारणों से मेरा नाम ‘विष्णु’ हुआ है[१]। मनुष्य दम (इन्द्रिस संयम) के द्वारा सिद्धि पाने की इच्छा करते हुए मुझे पाना चाहते हैं तथा दम के द्वारा ही वे पृथ्वी, स्वर्ग एवं मध्यवर्ती लोकों में ऊँची सिथति पाने की अभिलाषा करते हैं, इसलिये मैं ‘दामोदर’ कहलाता हूँ ( - यह दामोदर शब्द की व्युत्पत्ति है)। अन्न, वेद, जल और अमृत को पृश्निकहते हैं। ये सदा मेरे गर्भ में रहते हैं; इसलिये मेरा नाम ‘पृश्निगर्भ’ हैं।। जब त्रितमुनि अपने भाइयों द्वारा कुएँ में गिरा दिये गये, उस समय ऋषियों ने मुझसे इस प्रकार प्रार्थना की - ‘पृश्निगर्भ ! आप एकत और द्वित के गिराये हुए त्रित को डूबने से बचाइये।’ उस समय मेरे पृश्निगर्भ नाम का बारंबार कीर्तनकरने से ब्रह्माजी के आकद पुत्र ऋषिप्रवर त्रित उस कुएँसे बाहर हो गये। जगत! को तपाने वाले सूर्य की तथा अग्नि और चन्द्रमा की जो किरणें प्रकाशित होती हैं, वे सब मेरा केश कहलाती हें। उस केश से युक्त होने के कारण सर्वज्ञ द्विजश्रेष्ठ मुझे ‘केशव’ कहते हैं। अर्जुन ! इस प्रकार मेरा ‘केशव’ नाम सम्पूर्ण देवताओं और महात्मा ऋषियों के लिये वरदायक है।। अग्नि सोम के साथ संयुक्त हो एक योनि को प्रापत हुए, इसलिये चराचर जगत् अग्निसोममय है। पुराण में यह कहा गया है कि अग्नि और सोम एकयोनि हैं तथा सम्पूर्ण देवताओं के मुख अग्नि हैं। एक योनि होने के कारण ये एक-दूसरे को आनन्द प्रदान करते और समस्त लोाकों को धारण करते हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में नारायण की महिमा विषयक तीन सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ‘विच्छ गतौ’ (तुदादि), ‘विच्छ दीप्तौ’ (चुरादि), ‘विषु सेचने’ (भ्वादि), ‘विष्लृ व्याप्तौ’ (जुहोत्यादि), ‘विश प्रवेशने’ (तुदादि), ‘ष्णु प्रस्त्रवणे’ (अदादि), - इन सभी धातुओं से ‘विष्णु’ शब्द की सिद्धि होती है, अतः गति, दीप्ति, सेचन, व्यापित, प्रवेश तथा प्रस्त्रवण - ये सभी अर्थ ‘विष्णु’ शब्द में निहित हैं।

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