महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 343 श्लोक 44-66

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तीन सौ तैंतालीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : तीन सौ तैंतालीसवाँ अध्याय: श्लोक 35-66 का हिन्दी अनुवाद


वे दोनों सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करने वाले सूर्य से भी अधिक तेजस्वी थे। उन पूज्य महात्माओं के वक्षःस्थल में श्रीवत्स के चिन्ह सुशोभित हो रहे थे और वे अपने मस्तक पर जटामण्डल धारण किये हुए थे। उनके हाथों में हंस का और चरणों में चक्र का चिन्ह था। विशाल वक्षःस्थल, बड़ी-बड़ी भुजाएँ, अण्डकोष में चार-चार बीज, मुख में साठ दाँत और आठ दाढ़ें, मेघ के समान गम्भीर स्वर, सुन्दर मुख, चैड़े ललाट, बाँकी भौंहें, सुन्दर ठोढ़ी और मनोहर नासिका से उन दोनों की अपूर्व शोभा हो रही थी। उन दोनों देवताओं के मस्तक छत्र के समान प्रतीत होते थे। ऐसे शुभ लक्षणों से सम्पन्न उन दोनों महापुरुषों का दर्शन करके नारदजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। भगवान नर और नारायण ने भी नारदजी का स्वागत-सत्कार करके उनका कुशल समाचार पूछा। तदनन्तर नारदजी ने उन दोनों पुरुषोत्तमों की ओर देखकर मन-ही-मन विचार किया, अहो ! मैंने श्वेतद्वीप में भगवान की सभा के भीतर जिन सर्वभूत वन्दित सदस्यों को देखा था, ये दोनों ऋषिश्रेष्ठ भी वैसे ही हैं।। मन-ही-मन ऐसा सोचकर वे उन दोनों की प्रदक्षिणा करके एक सुन्दर कुशासन पर बैठ गये। तदनन्तर तपस्या, यश और तेज के भी निवासस्थान वे शम-दम सम्पन्न दोनों ऋषि पूर्वान्हकाल का नित्य कर्म पूर्ण करके फिर शान्त-भाव से पाद्य और अध्र्य आदि निवेदन करके नारदजी की पूजा करने लगे। नरेश्वर ! अपने नित्य कर्म तथा नारदजी का आतिथ्य-सत्कार करके वे दोनों ऋषि भी कुशासन पर बैठ गये। वहाँ उन तीनों के बैठ जाने पर वह प्रदेश घी की आहुति से प्रज्वलित विशाल लपटों वाले तीन अग्नियों से प्रकाशित यज्ञमण्डप की भाँति सुशोभित होने लगा। इसके बाद वहाँ आतिथ्य ग्रहण करके सुखपूर्वक बैइकर विश्राम करते हुए नारदजी से नारायण ने इस प्रकार कहा।

नर-नारायण बोले - देवर्षे ! क्या तुमने इस सूय श्वेतद्वीप में जाकर हम दोनों का परम कारणरूप सनातन परमात्मा भगवान का दर्शन कर लिया ?

नारदजी ने कहा - भगवन् ! मैंने वियवरूपधारी उन अविनाशी एवं कान्तिमान् परम पुरुष का दर्शन कर लिया। ऋषियों सहित देवता तथा सम्पूर्ण लोक उन्हीं के भीतर विराजमान हैं। मैं इस समय भी आप दोनों सनातन पुरुषों को देखकर यहीं श्वेतद्वीप निवासी भगवान की झाँकी कर रहा हूँ। वहाँ मेंने अव्यक्तरूपधारी श्रीहरि को जिन लक्षणों से सम्पन्न देखा था, आप दोनों व्यक्तरूपधारी पुरुष भी उन्हीं लक्षणों से सुशोभित हैं। इतना ही नहीं, मैंने आप दोनों को वहाँ भी परमदेव के पास उपस्थित देखा था और उन्हीं परमात्मा के भेजने से आज में फिर यहाँ आया हूँ। तीनों लोकों में धर्म के पुत्र आप दोनों महापुरुषों के सिवा दूसरा कौन है, जो तेज, यश और श्री में उन्हीं परमेश्वर के समान हो। उन भगवान श्रीहरि ने मुझसे सम्पुण धर्म का वर्णन किया था। क्षेत्रज्ञ का भी परिचय दिया था और यहाँ भविष्य में उनके जो अवतार जैसे होने वाले हें, उन्हें भी बताया था। वहाँ जो चन्द्रमा के समान गौरवर्ण के पुरुष थे, वे सब-के-सब पाँचों इन्द्रियों से रहित अर्थात् पान्चभौतिक शरीर से शून्य, ज्ञानवान् तथा पुरुषोत्तम श्रीविष्णु के भक्त थे। वे सदा उन नारायणदेव की पूजा-अर्चा करते रहते हैं और भगवान भी सदा उनके साथ प्रसन्नतापूर्वक क्रीड़ा करते रहते हैं। भगवान को अपने भक्त बहुत ही प्रिय हैं तथा वे परमात्मा श्रीहरि ब्राह्मणों के भी प्रेमी हैं। वे विश्व का पालन करने वाले सर्वव्यापी भगवान बड़े भक्तवत्सल हैं। भगवद्भक्तों के प्रेमी और प्रियतम श्रीहरि उनसे पूजित हो वहाँ सदा सुप्रसन्न रहते हैं। वे ही कर्ता, कारण और कार्य हैं। उनका बल और तेज अनन्त है। वे महायशस्वी भगवान ही हेतु, आाा, विधि और तत्वरूप हैं। वे अपने आपको तपस्या में लगाकर श्वेतद्वीप से भी परे प्रकाशमान तेजोमय स्वरूप से विख्यात हैं। उनका वह तेज अपने ही प्रकाश से प्रकाशित है। उन पूतात्मा परमात्मा ने तीनों लोकों में उस शान्ति का विस्तार किया है। अपने इस कल्याणमयी बुद्धि के द्वारा वे नैष्ठिक व्रत का आश्रय लेकर स्थित हैं। वहाँ सूर्य नहीं तपते, चन्द्रमा नहीं प्रकाशित होते तथा दुष्कर तपस्या में लगे हुए देवेश्वर श्रीहरि के समीप यह लौकिक वायु भी नहीं चलती है। वहाँ की भूमि पर एक ऊँची वेदी बनी है, जिसकी ऊँचाई आठ अंगुलियों की लंबाई के बराबर है। उसपर आरूढ़ हो वे विश्वकर्ता परमात्मा दोनों भुजाएँ ऊपर उठाये और उत्तर की ओर मुँह किये एक पैर से खड़े हैं। वे अंगों सहित सम्पूर्ण वेदों की आवृत्ति करते हुए अत्यन्त कठोर तपस्या में संल्ग्न हैं। ब्रह्मा, स्वयं महादेव, सम्पूर्ण ऋषि और शेष, श्रेष्ठ देवता तथा दैत्य, दानव, राक्षस, नाग, गरुड़, गन्धर्व, सिद्ध एवं राजर्षिगण सदा विधि पूर्वक जो हव्य और कव्य अर्पण करते हैं, वह सब कुछ उन्हीं भगवान के चरणों में उपकस्थत होता है। जिनकी बुद्धि अनन्य भाव से एकमात्र भगवान में ही लगी हुई है, उन भक्तों द्वारा जो क्रियाएँ समर्पित की जाती हैं, उन सबको वे भगवान स्वयं शिरोधार्य करते हैं। वहाँ के ज्ञानी-महात्मा भक्तों से बढ़कर भगवान को तरनों लोकों में दूसरा कोइर्द प्रिय नहीं है; अतः मैं अनन्य भाव से उन्हीं की शरण में गया हूँ। यहाँ भी मैं उन्हीं परमात्मा के भेजने से आया हूँ। स्वयं भगवान श्रीहरि ने मुझये ऐसा कहा था। अब मैं उन्हीं की आराधना में तत्पर हो आप दोनों के साथ यहाँ नित्य निवास करूँगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में नारायण की महिमा विषयक तीन सौ तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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