महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 12 श्लोक 20-38

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द्वादश (12) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद

राजन्! पापरहित धर्मात्मा प्रजापति ने इस उद्रदेश्य से प्रजाओं की सृष्टि की कि’ ये नाना प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा मेरा वनज करेंगी’। इसी उद्देश्य से उन्होनें यशसम्पादन के लिये नाना प्रकार की लता-वेलों, वृक्षों, औषधियों, मेध्य पशुओं, तथा यज्ञार्थक हविष्यों की भी सृष्टि की है। वह यज्ञकर्म गृहस्थाश्रमी पुरूष को एक मर्यादा के भीतर बाध रखने वाला है; इसलिये गार्हस्थ्य धर्म ही इस संसार में दुष्कर और दुर्लभ है। महाराज! जो गृहस्थ उसे पाकर पशु और धन-धान्य से सम्पन्न होते हुए भी यज्ञ नहीं करते हैं, उन्हें सदा ही पाप का भागी होना पड़ता है। कुछ ऋषि वेद-शास्त्रों का स्वाध्याय रूप यज्ञ करने वाले होते हैं, कुछ ज्ञानयज्ञ में तत्पर रहते हैं और कुछ लोग मन में ही ध्यान रूपी महान् यज्ञों का विस्तार करते हैं। नरेश्वर! चित्त को एकाग्र करना रूप जो साधन है, उसका आश्रय लेकर ब्रहमभूत हुए द्विज के दर्शन की अभिलाषा देवता भी रखते हैं। इधर- उधर से जो विचित्र रत्न संग्रह करके लाये गये हैं, उनका यज्ञों में वितरण न करके आप नास्तिकता की बातें कर रहें हैं। नरेश्वर! जिस पर कुटुम्बका भार हो, उसके लिये त्याग का विधान नहीं देखने में आता है। उसे तो राजसूय, अश्वमेघ अथवा सर्वमेघ यज्ञों में प्रवृत्त होना चाहिये। भूपाल! इनके सिवा जो दूसरे भी ब्राह्मंणों द्वारा प्रशंसित यज्ञ हैं, उनके द्वारा देवराज इन्द्र के समान आप भी यज्ञ पुरूष आराधना कीजिये। राजा के प्रमाद दोष से लुटेरे प्रबल होकर प्रजा को लूटने लगते हैं, उस अवस्था में यदि राजा ने प्रजा को शरण नहीं दी तो उसे मूर्तिमान् कलियुग कहा जाता है। प्रजानाथ! यदि हमलोग ईष्यायुग ईष्यायुक्त मनवाले होकर ब्राह्मंणों को घोडे़, गाय, दासी, सजी-सजायी हथिनी, गाव, जनपद, खेत और घर आदि का दान नहीं करते हैं तो राजाओं में कलियुग समझे जायॅंगे। जो दान नहीं देते, शरणागतों की रक्षा नहीं करते, वे राजाओं के पाप के भागी होते हैं। उन्हें दुःख-ही दुःख भोगना पड़ता है, सुख तो कभी नहीं मिलता। प्रभो! बडे़-बडे़ यज्ञों का अनुष्ठान, पितरों का श्राद्ध तथा तीर्था में स्नान किये बिना ही आप संन्यास ले लेंगे तो हवा द्वारा छिन्न-भिन्न हुए बादलों के समान नष्ट हो जायॅगे। लोक और परलोक दोनों से भ्रष्ट होकर (त्रिशंकु के समान) बीच में ही लटके रह जायॅगे। बाहर और भीतर जो कुछ भी मनको फॅसाने वाली चीजें हैं, उन सबको छोड़ने से मनुष्य त्यागी होता है। केवल घर छोड़ देने से त्याग सिद्धि नहीं होती। महाराज! इस गृहस्थ-आश्रमों में ही रहकर वेदविहित कर्म में लगे हुए ब्राह्मंणों का कभी उच्छेद (पतन) नहींहोता। कुन्तीनन्दन! जैसे इन्द्र युद्ध में दैत्यों की सेनाओं का संहार करते हैं, उसी प्रकार जो वेगपूर्वक बढे-चढे़ शत्रुओं का वध करके विजय पा चुका हो और पूर्ववर्ती राजाओं द्वारा सेवति अपने धर्म में तत्पर रहता हो, ऐसा (आपके सिवा) कौन राजा शोक करेगा? नरेन्द्र! कुन्तीकुमार! आप क्षत्रिय धर्म के अनुसार पराक्रम द्वारा इस पृथ्वी पर विजय पाकर मन्त्रवेत्ता ब्राह्मंणों को यश में बहुत सी दक्षिणाएं देकर स्वर्ग से भी ऊपर चले आयेंगे? अतः आज आपको शोक नहीं करना चाहिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्र्तगत राजधर्मानुशासन पर्व में नकुल वाक्य विषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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