महाभारत सभा पर्व अध्याय 31 श्लोक 24-42

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एकत्रिंश (31) अध्‍याय: सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 24-42 का हिन्दी अनुवाद

उस समय सहदेव की सेना में रथ, घोड़े, हाथी, मनुष्य औ कवच सभी आग से जलते दिखायी देने लगे। जनमेजय! इससे कुरुनन्दन सहदेव के मन में बड़ी घबराहट हुई। वे इसका प्रतीकार करने में असमर्थ हो गये। जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन्! सहदेव तो यज्ञ के लिये ही चेष्टा कर रहे थे, फिर भगवान अग्नि देव उस युद्ध में उनके विरोधी कैसे हो गये? वैशम्पायनजी ने कहा- जनमेजय! सुनन में आया है कि महिष्मती नगरी में निवास करने वाले भगवान अग्निदेव किसी समय उस नील राजा की कन्या सुदर्शना के प्रति आसक्त हो गये। राजा नील के एक कन्या थी, जो अनुपम सुन्दरी थी। वह सदा अपने पिता के अग्निहोत्रगृह में अग्नि को प्रज्वलित करने के लिये उपस्थित हुआ करती थी। पंखे से हवा करने पर भी अग्निदेव तब तक प्रज्वलित नहीं होते थे, जब तक कि वह सुन्दरी अपने मनोहर ओष्ठसम्पुट से फँूक मारकर हवा न देती थी। तत्पश्चात भगवान अग्रि उस सुदर्शन नाम की राजा कन्या को चाहने लगे। इस बात को राजा नील और सभ्ीा नागरिक जान गये। तदनन्तर एक दिन ब्राह्मण का रूप धारण करके इच्छानुसार घूमते हुए अग्निदेव उस सर्वांगसुन्दरी कमलनयनी कन्या के पास आये और उसके प्रति कामभाव प्रकट करने लगे। धर्मात्मा राजा नील ने शास्त्र के अनुसार उस ब्राह्मण पर शासन किया। तब क्रोध से भगवान अग्निदेव अपने रूप में प्रज्वलित हो उठे। उन्हें इस रूप में देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने पृथ्वी पर मस्तक रखकर अग्निदेव को प्रणाम किया। तत्पश्चात विवाह के योग्य समय आने पर राजा ने उस कन्या को ब्राह्मणरूपधारी अग्निदेव की सेवा में अर्पित कर दिया और उनके चरणों में सिर रखकर नमस्कार किया। राजा नील की सुन्दरी कन्या को पत्नी रूप में ग्रहण करके भगवान अग्नि ने राजा पर अपना कृपाप्रसाद प्रकट किया। वे उनकी अभीष्ट सिद्धि में सर्वोत्तम सहायक हो राजा से वर माँगने का नुरोध करने लगे। राजा ने अपनी सेना के प्रति अभयदान माँगा। राजन्! तभी से जो कोई नरेश अज्ञानवश उस पुरी को बलपूर्वक जीतना चाहते, उन्हें अग्निदेव जला देते थे। कुरुश्रेष्ठ जनमेजय! उस समय माहिष्मतीपुरी में युवती स्त्रियाँ इच्छानुसार ग्रहण करने के योग्य नही रह गयी थीं (क्योंकि वे स्वतन्त्रता से ही वर का वरण किय करती थीं)। अग्निदेव ने स्त्रियों के लिये यह वर दे दिया था कि अपने प्रतिकूल होने के कारण ही कोई स्त्रियों को वर का स्वयं ही वरण करने से रोक नहीं सकता। इससे वहाँ की स्त्रियाँ स्वेच्छापर्वूक वर का वरण करने के लिये विचरण किया करती थीं। भरतश्रेष्ठ जनमेजय! तभी से सब राजा (जो इस रहस्य से परिचित थे) अग्नि के भय के कारण माहिष्मतीपुरी पर चढ़ाई नहीं करते थे। राजन्! धर्मात्मा सहदेव अग्नि से व्याप्त हुई अनी सेना को भय से पीड़ित देख पर्वत की भाँति अविचल भाव से खड़े रहे, भय से कम्पित नहीं हुए। उन्होंने आचमन करके पवित्र हो अग्निदेव से इस प्रकार कहा। सहदेव बोले- कृष्णवर्त्मन्! हमारा यह आयोजन तो आप ही के लिये है, आपको नमस्कार है। पावक! आप देवताओं के मुख हैं, यज्ञस्वरूप हैं। आप सबको पवित्र करने के कारण पावक हैं और हव्य (हवनीय पदार्थ) को वहन करने के कारण हव्यवाहन कहलाते हैं। वेद आपके लिये ही जात अर्थात प्रकट हुए हैं, इसीलिये आप जातवेदा हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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