महाभारत सभा पर्व अध्याय 45 श्लोक 16-37

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पन्चचत्वारिंश (45) अध्‍याय: सभा पर्व (शिशुपालवध पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: पन्चचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 16-37 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण की ये सब बातें सुनकर उन समस्त राजाओं ने एक स्वर से चेदिराज शिशुपाल को धिक्कारा और उसकी निन्दा की। श्रीकृष्ण का उपर्युक्त वचन सुनकर प्रतापी शिशुपाल खिल खिलाकर हँसने लगा और इस प्रकार बोला- ‘कृष्ण! तुम इस भरी सभा में, विशेषत: सभी राजाओं के सामने रुकिमणी को मेरी पहले की मानोनीत पत्नी बताते हुए लज्जा का अनुभव कैसे नही करते? ‘मधुसूदन! तुम्हारे सिवा दूसरा कौन ऐसा पुरुष होगा, जो अपनी स्त्री को पहले दूसरकी वाग्दत्ता पत्नी स्वीकार करते हुए सत्पुरुषों की सभा में इसका वर्णन करेगा? ‘कृष्ण! यदि अपनी बुआ की बातों पर तुम्हें श्रद्धा हो तो मेरे अपराध क्षमा करो या न भी करो, तुम्हारे कुपित होने या प्रसन्न होने से मरा क्या बनने बिगड़ने वाला है?’ शिशुपाल इस तरह की बातें कर ही रहा था कि भगवान मधुसूदन ने मन ही मन दैत्यवर्ग विनाशक सुदर्शन चक्र का स्मरण किया। चिन्तन करते ही तत्काल चक्र हाथ में आ गया। तब बोलने में कुशल भगवान श्रीकृष्ण ने उच्च स्वर से यह वचन कहा-‘यहाँ बैठे हुए सब महीपाल यह सुन लें कि मैंने क्यों अब तक इसके अपराध क्षमा किये हैं? इसी की माता के याचना करने पर मैंने उसे यह प्रार्थित वर दिया था कि शिशुपाल के सौ अपराध क्षमा कर दूँगा। राजाओं! वे सब अपराध अब पूरे हो गये हैं, अत: आप सभी भूमिपतियों के देखते देखते मैं अभी इसका वध किये देता हूँ’। ऐसा कहकर कुपित हुए शत्रुहन्ता यदुकुल तिलक भगवान श्रीकृष्ण ने चक्र से उसी क्षण शिशुपाल का सिर उड़ा दिया। महाबाहु शिशुपाल वज्र के मारे हुए पर्वत शिखर की भाँति धराशायी हो गया। महाराज! तदनन्तर सभी नरेशों ने देखा, चेदिराज के शरीर से एक उत्कृक्ष तेज निकल कर ुपर उठ रहा है, मानो आकाश से सूर्य उदित हुआ हो। नरेश्वर! उस तेज ने विश्ववन्दित कमल दललोचन श्रीकृष्ण को नमस्कार किया और उसी समय उनके भीतर प्रविष्ट हो गया। यह देखकर सभी राजाओं को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि उसका तेज महाबाहु पुरुषोत्तम में प्रविष्ट हो गया। श्रीकृष्ण के द्वारा शिशुपाल के मारे जाने पर सारी पृथ्वी हिलने लगी, बिना बादलों के ही आकाश से वर्षो होने लगी और प्रज्वलित बिजली टूट टूटकर गिरने लगे। वह समय वाणी की पहुँच के परे था। उसका वर्णन करना कठिन था। उस समय कोई भूपाल वहां इस विषय में कुछ भी न बोल सके मौन रह गये। वे बार बार केवल श्रीकृष्ण के मुख की ओर देखते रहे। कुछ अन्य नरेश अत्यन्त अमर्ष में भरकर हाथों से हाथ मसलने लगे तथा दूसरे लोग क्रोध से मूर्छित होकर दाँतों से ओठ चबाने लगे। कुछ राजा एकान्त में भगवान श्रीकृष्ण की प्रशंसा करने लगे। कुछ ही भूपाल अत्यन्त क्रोध के वशीभूत हो रहे थे तथा कुछ लोग तटस्थ थे। बड़े बड़े ऋषि, महात्मा ब्राह्मणों तथा महाबली भूमिपालों ने भगवान श्रीकृष्ण का वह पराक्रम देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो उनकी स्तुति करते हुए उन्हीं की शरण ली। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने अपने भाईयों से कहा- ‘दमघोष पुत्र वीर राजा शिशुपाल का अन्त्येष्टि संस्कार बड़े सत्कार के साथ करो, इसमें देर न लगोओ।’ पाण्डवों ने भाई क उस आज्ञा का यथार्थ रूप से पालन किया। उस समय कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर ने वहाँ आये हुए सभी भूमिपालों के साथ चेदिराज के राजसिंहासन पर शिशुपाल के पुत्र को अभिषिक्त कर दिया। तदनन्तर महातेजस्वी कुरुराज युधिष्ठिर वह सम्पूर्ण समृद्धियों से भरा पूरा राजसूयज्ञ तरुण राजाओं की प्रसन्नता को बढ़ाता हुआ अनुपम शोभा पाने लगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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