श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 21 श्लोक 29-40
एकादश स्कन्ध : एकविंशोऽध्यायः (21)
यदि हिंसा और उनके फल मांस-भक्षण में राग ही हो, उसका त्याग न किया जा सकता हो, तो यज्ञ में ही करे—यह परिसंख्या विधि है, स्वाभाविक प्रवृत्ति का संकोच है, संध्यावन्दनादि के समान अपूर्व विधि नहीं है। इस प्रकार मेरे परोक्ष अभिप्राय को न जानकर विषयलोलुप पुरुष हिंसा का खिलवाड़ खेलते हैं और दुष्टतावश अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिये वध हुए पशुओं के मांस से यज्ञ करके देवता, पितर तथा भूतपतियों के यजन का ढोंग करते हैं । उद्धवजी! स्वर्गादि परलोक स्वपन के दृश्यों के समान हैं, वास्तव में वे असत् हैं, केवल उनकी बातें सुनने में बहुत मीठी लगती हैं। सकाम पुरुष वहाँ के भोगों के लिये मन-ही-मन अनेकों प्रकार के संकल्प कर लेते हैं और जैसे व्यापारी अधिक लाभ की आशा से मूलधन को भी खो बैठता है, वैसे ही वे सकाम यज्ञों द्वारा अपने धन का नाश करते हैं । वे स्वयं रजोगुण, सत्वगुणी अथवा तमोगुणी इन्द्रादि देवताओं की उपासना करते हैं। वे उन्हीं सामग्रियों से उतने ही परिश्रम से मेरी पूजा नहीं करते । वे जब इस प्रकार की पुष्पिता वाणी—रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें सुनते हैं कि ‘हमलोग इस लोक में यज्ञों के द्वारा देवताओं का यजन करके स्वर्ग में जायँगे और वहाँ दिव्य आनन्द भोगेंगे, उसके बाद जब फिर हमारा जन्म होगा, तब हम बड़े कुलीन परिवार में पैदा होंगे, हमारे बड़े-बड़े महल होंगे और हमारा कुटुम्ब बहुत सुखी और बहुत बड़ा होगा’ तब उनका चित्त क्षुब्ध हो जाता है और उन हेकड़ी जताने वाले घमंडियों को मेरे सम्बन्ध की बातचीत भी अच्छी नहीं लगती । उद्धवजी! वेदों में तीन काण्ड हैं—कर्म, उपासना और ज्ञान। इन तीनों काण्डों के द्वारा प्रतिपादित विषय है ब्रम्हा और आत्मा की एकता, सभी मन्त्र और मन्त्र-द्रष्टा ऋषि इस विषय को खोलकर नहीं, गुप्तभाव से बतलाते हैं और मुझे भी इस बात को गुप्तरूप से काना ही अभीष्ट है । वेदों का नाम है शब्दब्रम्ह। वे मेरी मूर्ति हैं, इसी से रहस्य समझना अत्यन्त कठिन है। वह शब्दब्रम्ह परा, पश्यन्ति और मध्यमा वाणी के रूप में प्राण, मन और इन्द्रियमय है। समुद्र के समान सीमारहित और गहरा है। उसकी थाह लगाना अत्यन्त कठिन है। (इसी से जैमिनी आदि बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके तात्पर्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाते) । उद्धव! मैं अनन्त-शक्ति-सम्पन्न एवं स्वयं अनन्त ब्रम्ह हूँ। मैंने ही वेदवाणी का विस्तार किया है। जैसे कमलनाल में पतला-सा सूत होता है, वैसे ही वह वेदवाणी प्राणियों कि अन्तःकरण में अनाहतनाद के रूप में प्रकट होती है । भगवान हिरण्यगर्भ स्वयं वेदमूर्ति एवं अमृतमय हैं। उनकी उपाधि है प्राण और स्वयं अनाहत शब्द के द्वारा ही उनकी अभिव्यक्ति हुई। जैसे मकड़ी अपने ह्रदय से मुख द्वारा जाला उगलती और फिर निगल लेती है, वैसे ही वे स्पर्श आदि वर्णों का संकल्प करने वाले मन रूप निमित्तिकारण के द्वारा हृदयाकाश से अनन्त अपार अनेकों मार्गों वाली वैखरी रूप वेदवाणी को स्वयं ही प्रकट करते हैं और फिर उसे अपने में लीन कर लेते हैं। वह वाणी हृद्गत सूक्ष्म ओंकार के द्वारा अभिव्यक्ति स्पर्श (‘क’ से लेकर ‘म’ तक-२५), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक-९), ऊष्मा (श, ष, स, ह) और अन्तःस्थ (य, र, ल, व)—वर्णों से विभूषित है। उसमें ऐसे छन्द हैं, जिसमें उत्तरोत्तर चार-चार वर्ण बढ़ते जाते हैं और उनके द्वारा विचित्र भाषा के रूप में वह विस्तृत हुई है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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