महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 109 श्लोक 1-15

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नवाधिकशततम (109) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: नवाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

दक्षिण दिशा का वर्णन

गरुड़ कहते हैं – गालव ! यह प्रसिद्ध है कि पूर्वकाल में भगवान् सूर्य ने वेदोक्त विधि के अनुसार यज्ञ करके आचार्य कश्यप को दक्षिणा रूप से इस दिशा का दान किया था, इसलिए इसे दक्षिण दिशा कहते हैं । ब्रह्मण ! तीनों लोकों के पितृगण इसी दिशा में प्रतिष्ठित हैं तथा 'ऊष्मप' नामक देवताओं का निवास भी इसी दिशा में सुना जाता है। पितरों के साथ विश्वेदेवगन सदा दक्षिण दिशा में ही वास करते हैं । वे समस्त लोकों में पूजित हो श्राद्ध में पितरों के समान ही भाग प्राप्त करते हैं । विप्रवर ! विद्वान पुरुष इस दक्षिण दिशा को धर्मदेवता का दूसरा द्वार कहते हैं । यहीं ( चित्रगुप्त आदि के द्वारा ) 'त्रुटि' और 'लव' आदि सूक्ष्म से सूक्ष्म कालांशों पर दृष्टि रखते हुये प्राणियों की आयु की निश्चित गणना की जाती है । देवर्षि, पितृलोक के ऋषि तथा समस्त राजर्षिगण दुःखरहित हो सदा इसी दिशा में निवास करते हैं। द्विजश्रेष्ठ ! इसी दिशा में ( रहकर चित्रगुप्त आदि के द्वारा धर्मराज के निकट प्राणियों के ) धर्म, सत्य तथा साधारण कर्मों के विषय में कहा जाता है । मृत प्राणी तथा उनके कर्म इसी दिशा का आश्रय लेते हैं । विप्रवर ! यह वह दिशा है, जिसमें मृत्यु के पश्चात सभी प्राणियों को जाना पड़ता है । यह सदा अज्ञानान्धकार से आवृत रहती है, इसलिए इसमें सुखपूर्वक यात्रा संभव नहीं हो पाती है । द्विजश्रेष्ठ ! ब्रहमाजी ने इस दिशा में प्रतिकूल स्वभाव एवं आचरण वाले सहसत्रों राक्षसों की सृष्टि की है, जिनका दर्शन अशुद्ध अंत:करणवाले पुरुषों को ही होता है । ब्रह्मण ! इसी दिशा में गंधर्वगण मंदराचल के कुओं और ब्रहमर्षियों के आश्रमों में मन और बुद्धि को आकर्षित करने वाली गाथाओं का गान करते हैं । पूर्वकाल में यहीं राजा रैवत गाथाओं के रूप में सामगान सुनते-सुनते अपनी स्त्री, मंत्री तथा राज्य से भी वियुक्त हो वन में चले गए थे । ब्रह्मण ! इसी दिशा में सावर्णि मनु तथा यवक्रीत के पुत्र ने सूर्य की गति के लिए मर्यादा ( सीमा ) स्थापित की थी, जिसका सूर्यदेव कभी उल्लंघन नहीं करते हैं । पुलस्त्यवंशी राक्षसराज महामना रावण ने इसी दिशा में तपस्या करके देवताओं से अवध्य होने का वरदान प्राप्त किया था । इसी दिशा में घटित हुई घटना के कारण वृत्रासुर देवराज इन्द्र का शत्रु बन बैठा था । दक्षिण दिशा में ही आकर सबके प्राण पुन: ( प्राण-अपान आदि के भेद से ) पाँच भागों में बँट जाते हैं ( अर्थात प्राणी नूतन देह धारण करते हैं )। गालव ! इसी दिशा में पापाचारी मनुष्य नरकों की आग में पकाए जाते हैं । दक्षिण में ही वह वैतरणी नदी है, जो वैतरणी नरक के अधिकारी पापियों से घिरी रहती है । मनुष्य इसी दिशा में जाकर सुख और दुःख के अंत को प्राप्त होता है । इसी दक्षिण दिशा में लौटने पर ( अर्थात उत्तरायण के अंतिम भाग में पहुँचकर दक्षिणायन के आरंभ में आनेपर जब कि वर्षा ऋतु रहती है, ) सूर्यदेव सुस्वादु जल की वर्षा करते हैं । फिर वशिष्ठ मुनि के द्वारा सेवित उत्तर दिशा में पहुँचकर (अर्थात उत्तरायण के आरंभ में जब कि शिशिर ऋतु रहती है, ) वे ओले गिराते हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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