श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 1-12

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:३३, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

दशम स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः(12) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

अघासुर का उद्धार

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक दिन नन्दनन्दन श्यामसुन्दर वन में ही कलेवा करने के विचार से बड़े तड़के उठ गये और सिंगी बाजे की मधुर मनोहर ध्वनि से अपने साथी ग्वालबालों को मन की बात जनाते हुए उन्हें जगाया और बछड़ों को आगे करके वे व्रज मण्डल से निकल पड़े। श्रीकृष्ण के साथ ही उनके प्रेमी सहस्त्रों ग्वालबाल सुन्दर छीके, बेंत, सिंगी और बाँसुरी लेकर तथा अपने सहत्रों बछड़ों को आगे करके बड़ी प्रसन्नता से अपने-अपने घरों से चल पड़े । उन्होंने श्रीकृष्ण के अगणित बछड़ों में अपने-अपने बछड़े मिला दिये और स्थान-स्थान पर बालोचित खेल खेलते हुए विचरने लगे । यद्यपि सब-के-सब ग्वालबाल काँच, घुँघची, मणि और सुवर्ण के गहने-पहने हुए थे, फिर भी उन्होंने वृन्दावन के लाल-पीले-हरे फलों से, नयी-नयी कोंपलों से, गुच्छों से, रंग-बिरंगे फूलों और मोरपंखों से तथा गेरू आदि रंगीन धातुओं से अपने को सजा लिया । कोई किसी का छीका चुरा लेता, तो कोई किसी की बेंत या बाँसुरी। जब उन वस्तुओं के स्वामी को पता चलता, तब उन्हें लेनेवाला किसी दूसरे के पास दूर फ़ेंक देता, दूसरा तीसरे के और तीसरा और भी दूर फ़ेंक देता। फिर वे हँसते हुए उन्हें लौटा देते । यदि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण वन की शोभा देखने के लिए कुछ आगे बढ़ जाते, तो ‘’पहले मैं छुऊँगा, पहले मैं छुऊँगा’—इस प्रकार आपस में होड़ लगाकर सब-के-सब उनकी ओर दौड़ पड़ते और उन्हें छू-छूकर आनन्दमग्न हो जाते । कोई बाँसुरी बजा रहा है, तो कोई सिंगी ही फूँक रहा है। कोई-कोई भौरों के साथ गुनगुना रहे हैं, तो बहुत-से कोयलों के स्वर में स्वर मिलाकर ‘कुहू-कुहू’ कर रहे हैं । एक ओर कुछ ग्वालबाल आकश में उड़ते हुए पक्षियों की छाया के साथ दौड़ लगा रहे हैं, तो दूसरी ओर कुछ हंसों की छाल की नक़ल करते हुए उनके साथ सुन्दर गति से चल रहे हैं। कोई बगुले के पास उसी के समान आँख मूँदकर बैठ रहे हैं, तो कोई मोरों को नाचते देख उन्हीं की तरह नाच रहे हैं । कोई-कोई बंदरों की पूँछ पकड़कर खीँच रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ इस पेड़ से इस पेंड पर चढ़ रहे हैं। कोई-कोई उनके साथ मुँह बना रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ एक डाल से दूसरी डाल पर छलांग लगा रहे हैं । बहुत-से ग्वालबाल तो नदी के कछार में छपका खेल रहे हैं और उसमें फुदकते हुए मेंढ़कों के साथ स्वयं भी फुदक रहे हैं। कोई पानी में अपनी परछाईं देखकर उसकी हँसी कर रहे हैं, तो दूसरे शब्द की प्रतिध्वनिको ही बुरा-भला कह रहे हैं । भगवान श्रीकृष्ण ज्ञानी संतों के लिए स्वयं ब्रम्हानंद के मूर्तिमान् अनुभव हैं। दास्यभाव से युक्त भक्तों के लिए वे उनके आराध्यदेव, परम ऐश्वर्यशाली परमेश्वर हैं। और माया-मोहित विषयान्धों के लिए वे केवल एक मनुष्य-बालक हैं। उन्हीं भगवान के साथ वे महान पुण्यात्मा ग्वालबाल तरह-तरह के खेल-खेल रहें हैं । बहुत जन्मों तक श्रम और कष्ट उठाकर उन्होंने अपनी इन्द्रियों और अंतःकरण वश में कर लिया है, उन योगियों के लिए भी भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की रज अप्राप्य है। वही भगवान स्वयं जिन व्रजवासी ग्वालबालों की आँखों के सामने रहकर सदा खेल खेलते हैं, उनके सौभाग्य की महिमा इससे अधिक क्या कही जाय ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-