श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 1-12

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दशम स्कन्ध: अष्टादशोऽध्यायः (18) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टादशोऽध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

प्रलम्बासुर-उद्धार

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब आनन्दित स्वजन सम्बन्धियों से घिरे हुए एवं उनके मुख से अपनी कीर्ति का गान सुनते हुए श्रीकृष्ण ने गोकुलमण्डित गोष्ठ में प्रवेश किया ।

इस प्रकार अपनी योगमाया से ग्वाल का-वेष बनाकर राम और श्याम व्रज में क्रीड़ा कर रहे थे। उन दिनों ग्रीष्म ऋतु थी। यह शरीरधारियों को बहुत प्रिय नहीं है ।

परन्तु वृन्दावन के स्वाभाविक गुणों से वहाँ वसन्त की ही छटा छिटक रही थी। इसका कारण था, वृन्दावन में परम मधुर भगवान श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और बलरामजी निवास जो करते थे ।

झीगुरों की तीखी झंकार झरनों के मधुर झर-झरने छिप गयी थी। उन झरनों से सदा-सर्वदा बहुत ठंडी जल की फुहियाँ उड़ा करती थीं, जिनसे वहाँ के वृक्षों की हरियाली देखते ही बनती थी ।

जिधर देखिये, हरी-हरी दूब से पृथ्वी हरी-हरी हो रही है। नदी, सरोवर एवं झरनों की लहरों का स्पर्श करके जो वायु चलती थी उसमें लाल-पीले-नीले तुरंत के खिले हुए, देर के खिले हुए—कह्लार, उत्पल आदि अनेकों प्रकार के कमलों का पराग मिला हुआ होता था। इस शीतल, मन्द और सुगन्ध वायु के कारण वनवासियों को गर्मी का किसी प्रकार का क्लेश नहीं सहना पड़ता था। न दावाग्नि का ताप लगता था और न तो सूर्य का घाम ही ।

नदियों में अगाध जल भरा हुआ था। बड़ी-बड़ी लहरें उनके तटों को चूम जाया करतीं थीं। वे उनके पुलिनों से टकरातीं और उन्हें स्वच्छ बना जातीं। उनके कारण आस-पास की भूमि गीली बनी रहती और सूर्य की अत्यन्त उग्र तथा तीखी किरणें भी वहाँ की पृथ्वी और हरी-भरी घास को नहीं सुखा सकती थीं; चारों ओर हरियाली छा रही थी ।

उस वन में वृक्षों की पाँत-की-पाँत फूलों से लद रही थी। जहाँ देखिये, वहीँ से सुन्दरता फूटी पड़ती थी। कहीं रंग-बिरंगे पक्षी चहक रहे हैं, तो कहीं तरह-तरह के हरिन चौकड़ी भर रहे हैं। कहीं मोर कूक रहे हैं, तो कहीं भौंरे गुंजार कर रहे हैं। कहीं कोयलें कुहक रही हैं तो कहीं सारस अलग ही अपना अलाप छेड़े हुए हैं । ऐसा सुन्दर वन देखकर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलरामजी ने उसमें विहार करने की इच्छा की। आगे-आगे गौएँ चलीं, पीछे-पीछे ग्वालबाल और बीच में अपने बड़े भाई के साथ बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण ।

राम, श्याम और ग्वालबालों ने नव पल्लवों, मोर-पंख के गुच्छों, सुन्दर-सुन्दर पुष्पों के हारों और गेरू आदि रंगीन धातुओं से अपने को भाँति-भाँति से सजा लिया। फिर कोई आनन्द में मग्न होकर नाचने लगा तो कोई ताल ठोंककर कुश्ती लड़ने लगा और किसी-किसी ने राग अलापना शुरु कर दिया । जिस समय श्रीकृष्ण नाचने लगते, उस समय कुछ ग्वालबाल गाने लगते और कुछ बाँसुरी तथा सींग बजाने लगते। कुछ हथेली से ही ताल देते, तो कुछ ‘वाह-वाह’ करने लगते । परीक्षित्! उस समय नट जैसे अपने नायक की प्रशंसा करते हैं, वैसे ही देवता लोग ग्वालबालों का रूप धारण करके वहाँ आते और गोपजाति में जन्म लेकर छिपे हुए बलराम और श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगते । घुँघराली अलकों वाले श्याम और बलराम कभी एक-दूसरे का हाथ पकड़कर कुम्हार के चाक की तरह चक्कर काटते-घुमरी-परेता खेलते। कभी एक-दूसरे से अधिक फाँद जाने की इच्छा से कूदते-कूँडी डाकते, कभी कहीं होड़ लगाकर ढेले फेंकते तो कभी ताल ठोंक-ठोंककर रस्साकसी करते-एक दल दूसरे डाल के विपरीत रस्सी पकड़कर खींचता और कभी कहीं एक-दूसरे से कुश्ती लड़ते-लड़ाते। इस प्रकार तरह-तरह के खेल खेलते ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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