श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 39 श्लोक 45-57

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दशम स्कन्ध: एकोनचत्वरिंशोऽध्यायः (39) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनचत्वरिंशोऽध्यायः श्लोक 45-57 का हिन्दी अनुवाद

शेषजी के हजार सिर हैं और प्रत्येक फणपर मुकुट सुशोभित है। कमलनाल के समान उज्जवल शरीर पर नीलाम्बर धारण किये हुए हैं और उनकी ऐसी शोभा हो रही है, मानो सहस्त्र शिखरों से युक्त स्वेतगिरि कैलास शोभायमान हो । अक्रूरजी ने देखा कि शेषजी की गोद में श्याम मेघ के समान घनश्याम विराजमान हो रहे हैं। वे रेशमी पीताम्बर पहले हुए हैं। बड़ी ही शान्त चतुर्भुत मूर्ति है और कमल के रक्तदल के समान रतनारे नेत्र हैं । उनका वदन बड़ा ही मनोहर और प्रसन्नता का सदन है। उनका मधुर हास्य और चारु चितवन चित्त को चिराये लेती हैं। भौंहें सुन्दर और नासिका तनिक ऊँची तथा बड़ी ही सुघड़ है। सुन्दर कान, कपोल और लाल-लाल अधरों की छटा निराली ही है । बाँहें घुटनों तक लंबी और ह्रस्ट-पुष्ट हैं। कंधे ऊँचें और वक्षःस्थल लक्ष्मीजी का आश्रय-स्थान है। शंख के समाण उतार-चढ़ाव वाला सुडौल गला, गहरी नाभि और त्रिवलीयुक्त उदर पीपल पत्ते के समान शोभायमान है ।

स्थूल कटिप्रदेश और नितम्ब, हाथी की सूँड के समान जाँघें, सुन्दर घुटने एवं पिंडलियाँ हैं। एड़ी के ऊपर की गाँठे उभरी हुई हैं और लाल-लाल नखों से दिव्य ज्योतिर्मय किरणें फ़ैल रही हैं। चरणकमल की अंगुलियाँ और अंगूठे नयी और कोमल पंखुड़ियों के समान सुशोभित हैं । अत्यन्त बहुमूल्य मणियों से जड़ा हुआ मुकुट, कड़े, बाजूबंद, करधनी, हार, नूपुर और कुण्डलों से तथा यज्ञोपवीत से दिव्य मूर्ति अलंकृत हो रही है। एक हाथ में पद्म शोभा पा रहा है और शेष तीन हाथों में शंख, चक्र और गदा, वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह, गले में कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही है ।

नन्द-सुनन्द आदि पार्षद अपने ‘स्वामी’, सनकादि परमर्षि ‘परब्रम्ह’, ब्रम्हा, महादेव आदि देवता ‘सर्वेश्वर’, मरीचि आदि नौ ब्राम्हण ‘प्रजापति’ और प्रह्लाद-नारद आदि भगवान के परम प्रेमी भक्त तथा आठों वसु अपने अनुसार निर्दोष वेदवाणी से भगवान की स्तुति कर रहे हैं ।

साथ ही लक्ष्मी, पुष्टि, सरस्वती, कान्ति, कीर्ति और तुष्टि (अर्थात् ऐश्वर्य, बल, ज्ञान, श्री, यश और वैराग्य—ये षडैश्वर्यरूप शक्तियाँ), इला (सन्धिनीरूप पृथ्वी-शक्ति), ऊर्जा (लीलाशक्ति), विद्या-अविद्या (जीवों के मोक्ष और बन्धन में कारणरूपा बहिरंग शक्ति), ह्लादिनी, संवित् (अन्तरंगा शक्ति) और माया आदि शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रही हैं । भगवान की यह झाँकी निरखकर अक्रूरजी का ह्रदय परमानन्द से लबालब भर गया। उन्हें परम शक्ति प्राप्त हो गयी। सारा शरीर हर्षावेश से पुलकित हो गया। प्रेमभाव का उद्रेक होने से उनके नेत्र आँसू से भर गये । अब अक्रूरजी ने अपना साहस बटोकर भगवान के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोड़कर बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे गद्गद स्वर से भगवान की स्तुति करने लगे ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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