श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 42 श्लोक 14-26

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:३६, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

दशम स्कन्ध: द्विचत्वारिंशोऽध्यायः (42) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद

उनके दर्शनमात्र से स्त्रियों के ह्रदय में प्रेम का आवेग, मिलन की आकांक्षा जग उठती थी। यहाँ तक कि उन्हें अपने शरीर की भी सुधि न रहती। उनके वस्त्र, जुड़े और कंगन ढीले पड़ जाते थे तथा वे चित्रलिखित मूर्तियों के समान ज्यों-की-त्यों खड़ी रह जाती थीं ।

इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण पुरवासियों से धनुष-यज्ञ का स्थान पूछते हुए रंगशाला में पहुँचे और वहाँ उन्होंने इन्द्रधनुष के समान एक अद्भुत धनुष देखा । उस धनुष में बहुत-सा धन लगाया गया था, अनेक बहुमूल्य अलंकारों से उसे सजाया गया था। उसकी खूब पूजा की गयी थी और बहुत-से सैनिक उसकी रक्षा कर रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने रक्षकों के रोकने पर भी उस धनुष को बलात् उठा लिया । उन्होंने सबके देखते-देखते उस धनुष को बायें हाथ से उठाया, उस पर डोरी चढ़ायी और एक क्षण में खींचकर बीचो-बीच से उसी प्रकार उसके दो टुकड़े कर डाले, जैसे बहुत बलवान् मतवाला हाथी खेल-ही-खेल में ईख को तोड़ डालता है । जब धनुष टूटा तब उसके शब्द से आकाश, पृथ्वी और दिशाएँ भर गयीं; उसे सुनकर कंस भी भयभीत हो गया । अब धनुष रक्षक आततायी असुर अपने सहायकों के साथ बहुत ही बिगड़े। वे भगवान श्रीकृष्ण को घेरकर खड़े हो गये और उन्हें पकड़ लेने की इच्छा से चिल्लाने लगे—‘पकड़ लो, बाँध लो, जाने पावे’ । उनका दुष्ट अभिप्राय जानकार बलरामजी और श्रीकृष्ण भी तनिक क्रोधित हो गये और उस धनुष के टुकड़ों को उठाकर उन्हीं से उनका काम तमाम कर दिया । उन्हीं धनुषखण्डों से उन्होंने उन असुरों की सहायता के लिये कंस की भेजी हुई सेना का भी संहार कर डाला। इसके बाद वे यज्ञशाला के प्रधान द्वार से होकर बाहर निकल आये और बड़े आनन्द से मथुरापुरी की शोभा देखते हुए विचरने लगे । जब नगरवासियों ने दोनों भाइयों के इस अद्भुत पराक्रमी की बात सुनी और उनके तेज, साहस तथा अनुपन रूप को देखा तब उन्होंने यही निश्चय किया कि हो-न-हो ये दोनों कोई श्रेष्ठ देवता हैं । इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी पूरी स्वतंत्रता से मथुरापुरी में विचरण करने लगे। जब सूर्यास्त हो गया तब दोनों भाई ग्वालबालों से घिरे हुए नगर से बाहर अपने डेरे पर, जहाँ छकड़े थे, लौट आये । तीनों लोकों के बड़े-बड़े देवता चाहते थे कि लक्ष्मी हमें मिलें, परन्तु उन्होंने सबका परित्याग कर दिया और न चाहने वाले भगवान का वरण किया। उन्हीं को सदा के लिये अपना निवासस्थान बना लिया। मथुरावासी उन्हीं पुरुषभूषण भगवान श्रीकृष्ण के अंग-अंग का सौन्दर्य देख रहे हैं। उनका कितना सौभाग्य हैं! व्रज में भगवान की यात्रा के समय गोपियों ने विरहातुर होकर मथुरावासियों के सम्बन्ध में जो-जो बातें कहीं थीं, वे सब यहाँ अक्षरशः सत्य हुईं। सचमुच वे परमानन्द एन मग्न हो गये । जब कंस ने सुना कि श्रीकृष्ण और बलराम ने धनुष तोड़ डाला, रक्षकों तथा उनकी सहायता के लिये भेजी हुई सेना का भी संहार कर डाला और यह सब उनके लिये केवल एक खिलवाड़ ही था—इसके लिये उन्हें कोई श्रम या कठिनाई नहीं उठानी पड़ी ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-