श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 15-28
प्रथम स्कन्धः द्वितीय अध्यायः(2)
कर्मों की गाँठ बड़ी कड़ी है। विचारवान् पुरुष भगवान के चिन्तन की तलवार से उस गाँठ को काट डालते हैं। तब भला, ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो भगवान की लीला कथा में प्रेम न करे ।
शौनकादि ऋषियों! पवित्र तीर्थों का सेवन करने से महत्सेवा, तदनन्तर श्रवण की इच्छा, फिर श्रद्धा, तत्पश्चात् भगवत्-कथा में रूचि होती है । भगवान श्रीकृष्ण के यश का श्रवण और कीर्तन दोनों पवित्र करने वाले हैं। वे अपनी कथा सुनने वालों के ह्रदय में आकर स्थित हो जाते हैं और उनकी अशुभ वासनाओं को नष्ट कर देते हैं; क्योंकि वे संतों के नित्य सुहृद हैं । जब श्रीमद्भागवत अथवा भगवद्भक्तों के निरन्तर सेवन से अशुभ वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं, तब पवित्र कीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के प्रति स्थायी प्रेम की प्राप्ति होती है । तब रजोगुण और तमोगुण के भाव—काम और लोभादि शान्त हो जाते हैं और चित्त इनसे रहित होकर सत्वगुण में स्थित एवं निर्मल हो जाता है । इस प्रकार भगवान की प्रेममयी भक्ति से जब संसार की समस्त असक्तियाँ मिट जाती हैं, ह्रदय आनन्द से भर जाता है, तब भगवान के तत्व का अनुभव अपने-आप हो जाता है । ह्रदय में आत्मस्वरूप भगवान का साक्षात्कार होते ही ह्रदय की ग्रन्थि टूट जाती है, सारे सन्देह मिट जाते हैं और कर्म बन्धन क्षीण हो जाता है । इसी से बुद्धिमान लोग नित्य-निरन्तर बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम-भक्ति करते हैं, जिससे आत्म प्रसाद की प्राप्ति होती है ।
प्रकृति के तीन गुण हैं—सत्व, रज और तम। इनको स्वीकार करके इस संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के लिये एक अद्वितीय परमात्मा ही विष्णु, ब्रम्हा और रूद्र—ये तीन नाम ग्रहण करते हैं। फिर भी मनुष्यों का परम कल्याण तो सत्वगुण स्वीकार करने वाले श्रीहरि से ही होता है । जैसे पृथ्वी के विकार लकड़ी की अपेक्षा धुआँ श्रेष्ठ है और उससे भी श्रेष्ठ है अग्नि—क्योंकि वेदोक्त यज्ञ-यागादि के द्वारा अग्नि सद्गति देने वाला है—वैसे ही तमोगुण से रजोगुण श्रेष्ठ है और रजोगुण से भी सत्वगुण श्रेष्ठ है; क्योंकि वह भगवान का दर्शन कराने वाला है । प्राचीन युग में महात्मा लोग अपने कल्याण के लिये विशुद्ध सत्वमय भगवान विष्णु की आराधना किया करते थे। अब भी जो लोग उनका अनुसरण करते हैं, वे उन्हीं के समान कल्याण भाजन होते हैं । जो लोग इस संसार सागर से पार जाना चाहते हैं, वे यद्यपि किसी की निन्दा तो नहीं करते, न किसी में दोष ही देखते हैं, फिर भी घोर रूप वाले—तमोगुणी-रजोगुणी भैरवादि भूतपतियों की उपासना न करके सत्वगुणी विष्णु भगवान और उनके अंश—कला स्वरूपों का ही भजन करते हैं । परन्तु जिसका स्वभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी है, वे धन, ऐश्वर्य और सन्तान की कामना से भूत, पितर और प्रजापतियों की उपासना करते हैं; क्योंकि इन लोगों का स्वभाव उन (भूतादि) – से मिलता-जुलता होता है । वेदों का तात्पर्य श्रीकृष्ण में ही है। यज्ञों के उद्देश्य श्रीकृष्ण ही हैं। योग श्रीकृष्ण के लिये ही किये जाते हैं और समस्त कर्मों की परिसमाप्ति भी श्रीकृष्ण में ही है ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-