श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 50 श्लोक 1-16

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दशम स्कन्ध: पञ्चाशत्तमोऽध्यायः (50) (उत्तरार्धः))

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चाशत्तमोऽध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भरतवंशशिरोमणि परीक्षित्! कंस की दो रानियाँ थीं—अस्ति और प्राप्ति। पति की मृत्यु से उन्हें बड़ा दुःख हुआ और वे अपने पिता की राजधानी में चली गयीं । उन दोनों का पिता था मगधराज जरासन्ध। उससे उन्होंने बड़े दुःख के साथ अपने विधवा होने के कारणों का वर्णन किया । परीक्षित्! यह अप्रिय समाचार सुनकर पहले तो जरासन्ध को बड़ा शोक हुआ, परन्तु पीछे वह क्रोध से तिलमिला उठा। उसने यह निश्चय करके कि मैं पृथ्वी पर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूँगा, युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की । और तेईस अक्षौहिणी सेना के साथ यदुवंशियों की राजधानी मथुरा को चारों ओर से घेर लिया ।

भगवान श्रीकृष्ण ने देखा—जरासन्ध की सेना क्या है, उमड़ता हुआ समुद्र है। उन्होंने यह भी देखा कि उसने चारों ओर से हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे स्वजन तथा पुरवासी भयभीत हो रहे हैं । भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही मनुष्य-सा वेष धारण किये हुए हैं। अब उन्होंने विचार किया कि मेरे अवतार का क्या प्रयोजन है और इस समय इस स्थान पर मुझे क्या करना चाहिये । उन्होंने सोचा यह बड़ा अच्छा हुआ कि मगधराज जरासन्ध ने अपने अधीनस्थ नरपतियों की पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियों से युक्त हुई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी कर ली है। यह सब तो पृथ्वी का भार ही जुटकर मेरे पास आ पहुँचा है। मैं इसका नाश करूँगा। परन्तु अभी मगधराज जरासन्ध को नहीं मारना चाहिये। क्योंकि वह जीवित रहेगा तो फिर से असुरों की बहुत-सी सेना इकट्ठी कर लायेगा । मेरे अवतार का यही प्रयोजन है कि मैं पृथ्वी का बोझ हलका कर दूँ, साधु-सज्जनों की रक्षा करूँ और दुष्ट-दुर्जनों का संहार । समय-समय पर धर्म-रक्षा के लिये और बढ़ते हुए अधर्म को रोकने के लिये मैं और भी अनेकों शरीर ग्रहण करता हूँ ।

परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि आकाश से सूर्य के समान चमकते हुए दो रथ आ पहुँचे। उनमें युद्ध की सारी सामग्रियाँ सुसज्जित थीं और दो सारथि उन्हें हाँक रहे थे । इसी समय भगवान के दिव्य और सनातन आयुध भी अपने-आप वहाँ आकर उपस्थित हो गये। उन्हें देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने बड़े भाई बलरामजी से कहा— ‘भाईजी! आप बड़े शक्तिशाली हैं। इस समय जो यदुवंशी आपको ही अपना स्वामी और रक्षक मानते हैं, जो आपसे ही सनाथ हैं, उन पर बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी है। देखिये, यह आपका रथ है और आपके प्यारे आयुध हल-मूसल भी आ पहुँचे हैं । अब आप इस रथ पर सवार होकर शत्रु-सेना का संहार कीजिये और अपने स्वजनों को इस विपत्ति से बचाइये। भगवन्! साधुओं का कल्याण करने के लिये ही हम दोनों ने अवतार ग्रहण किया हैं । अतः अब आप यह तेईस अक्षौहिणी सेना, पृथ्वी का यह विपुल भार नष्ट कीजिये।’ भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी ने यह सलाह करके कवच धारण किये और रथ पर सवार होकर वे मथुरा से निकले। उस समय दोनों भाई अपने-अपने आयुध लिये हुए थे और छोटी-सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। श्रीकृष्ण का रथ हाँक रहा था दारुक। पुरी से बाहर निकलकर उन्होंने अपना पांचजन्य शंख बजाया ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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