श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 55 श्लोक 30-40

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दशम स्कन्ध: पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः (55) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः श्लोक 30-40 का हिन्दी अनुवाद

इसी समय वहाँ रुक्मिणीजी आ पहुँचीं। परीक्षित्! उनके नेत्र कजरारे और वाणी अत्यन्त मधुर थी। इस नवीन दम्पत्ति को देखते ही उन्हें अपने खोये पुत्र की याद हो आयी। वात्सल्यस्नेह की अधिकता से उनके स्तनों से दूध झरने लगा ।

रुक्मिणीजी सोंचने लगीं—‘यह नररत्न कौन है ? यह कमलनयन किसका पुत्र है ? किस बड़भागिनी ने इसे अपने गर्भ में धारण किया होगा ? इसे यह कौन सौभाग्यवती पत्नी-रूप में प्राप्त हुई है ? मेरा भी एक नन्हा-सा शिशु खो गया था। न जाने कौन उसे सूतिकागृह से उठा ले गया! यदि वह कहीं जीता-जागता होगा तो उसकी अवस्था तथा रूप भी इसी के समान हुआ होगा । मैं तो इस बात से हैरान हूँ कि इसे भगवान श्यामसुन्दर की-सी रूप-रेखा, अंगों की गठन, चाल-ढाल, मुसकान-चितवन और बोल-चाल कहाँ से प्राप्त हुई ? हो-न-हो यह वही बालक है, जिसे मैंने अपने गर्भ में धारण किया था; क्योंकि स्वभाव से ही मेरा स्नेह इसके प्रति उमड़ रहा है और मेरी बायीं बाँह भी फड़क रही है’ ।

जिस समय रुक्मिणीजी इस प्रकार सोच-विचार कर रही थीं—निश्चय और सन्देह के झूले में झूल रही थीं, उसी समय पवित्रकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेवजी के साथ वहाँ पधारे । भगवन् श्रीकृष्ण सब कुछ जानते थे। परन्तु वे कुछ न बोले, चुपचाप खड़े रहे। इतने में ही नारदजी वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने प्रद्दुम्नजी को शम्बरासुर का हर ले जाना, समुद्र के फेंक देना आदि जितनी भी घटनाएँ घटित हुई थीं, वे सब कह सुनायीं । नारदजी के द्वारा यह महान् आश्चर्यमयी घटना सुनकर भगवान श्रीकृष्ण के अन्तःपुर की स्त्रियाँ चकित हो गयीं और बहुत वर्षों तक खोये रहने एक बाद लौट हुए प्रद्दुम्नजी का इस प्रकार अभिनन्दन करने लगीं, मानो कोई मरकर जी उठा हो । देवकीजी, वसुदेवजी, भगवान श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी और स्त्रियाँ—सब उस नवदम्पत्ति को ह्रदय से लगाकर बहुत ही आनन्दित हुए । जब द्वारकावासी नर-नारियों को यह मालूम हुआ कि खोये हुए प्रद्दुम्नजी लौट आये हैं तब वे परस्पर कहने लगें ‘अहो, कैसे सौभाग्य की बात है कि यह बालक मानो मरकर फिर लौट आया’ । परीक्षित्! प्रद्दुम्नजी का रूप-रंग भगवान श्रीकृष्ण से इतना मिलता-जुलता था कि उन्हें देखकर उनकी माताएँ भी उन्हें अपना पतिदेव श्रीकृष्ण समझकर मधुरभाव में मग्न हो जाती थीं और उनके सामने से हटकर एकान्त में चली जाती थीं! श्री निकेतन भगवान के प्रतिबिम्बस्वरुप कामावतार भगवान प्रद्दुम्न के दीख जाने पर ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। फिर उन्हें देखकर दूसरी स्त्रियों की विचित्र दशा हो जाती थी, इसमें तो कहना ही क्या है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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