श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 61 श्लोक 28-40

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दशम स्कन्ध: एकषष्टितमोऽध्यायः(61) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकषष्टितमोऽध्यायः श्लोक 28-40 का हिन्दी अनुवाद

राजन्! बलरामजी को पासे डालने तो आते नहीं, परन्तु उन्हें खेलने का बहुत बड़ा व्यसन है।’ उन लोगों के बहकाने से रुक्मी ने बलरामजी को बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा । बलरामजी ने पहले सौ, फिर हजार और इसके बाद दस हजार मुहरों का दाँव लगाया। उन्हें रुक्मी ने जीत लिया। रुक्मी की जीत होने पर कलिंगनरेश दाँत दिखा-दिखाकर, ठहाका मारकर बलरामजी की हँसी उड़ाने लगा। बलरामजी से वह हँसी सहन न हुई। वे कुछ चिढ़ गये । इसके बाद रुक्मी ने एक लाख मुहरों का दाँव लगाया। उसे बलरामजी ने जीत लिया। परन्तु रुक्मी धूर्तता से यह कहने लगा कि ‘मैंने जीता है’ । इस पर श्रीमान् बलरामजी क्रोध से तिलमिला उठे। उनके ह्रदय में इतना क्षोभ हुआ, मानो पूर्णिमा के दिन समुद्र में ज्वार आ गया हो। उनके नेत्र एक तो स्वभाव से ही लाल-लाल थे, दूसरे अत्यन्त क्रोध के मारे वे और भी दहक उठे। अब उन्होंने दस करोड़ मुहरों का दाँव रखा । इस बार भी द्यूतिनियम के अनुसार बलरामजी की ही जीत हुई। परन्तु रुक्मी ने छल करके कहा—‘मेरी जीत है। इस विषय के विशेषज्ञ कलिंगनरेश आदि सभासद् इसका निर्णय कर दें ।

उस समय आकाशवाणी ने कहा—‘यदि धर्म-पूर्वक कहा जाय, तो बलरामजी ने ही यह दाँव जीता है। रुक्मी का यह कहना सरासर झूठ है कि उसने जीता है’। एक तो रुक्मी के सिरपर मौत सवार थी और दूसरे उसके साथी दुष्ट राजाओं ने भी उसे उभाड़ रखा था। इससे उसने आकाशवाणी पर कोई ध्यान न दिया और बलरामजी की हँसी उड़ाते हुए कहा—‘बलरामजी! आखिर आप लोग वन-वन भटकने वाले ग्वाले ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जानें ? पासों और बाणों से तो केवल राजालोग ही खेला करते हैं, आप-जैसे नहीं’ । रुक्मी के इस प्रकार आक्षेप और राजाओं के उपहास करने पर बलरामजी क्रोध से आगबबूला हो थे। उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस मांगलिक सभा में ही रुक्मी को मार डाला । पहले कलिंगनरेश दाँत दिखा-दिखाकर हँसता था, अब रंग में भंग देखकर वहाँ से भागा; परन्तु बलरामजी ने दस ही कदम पर उसे पकड़ लिया और क्रोध से उसके दाँत तोड़ डाले । बलरामजी ने अपने मुद्गर की चोट से दूसरे राजाओं की भी बाँह, जाँघ और सिर आदि तोड़-फोड़ डाले। वे खून से लथपथ और भयभीत होकर वहाँ से भागते बने । परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण ने यह सोचकर कि बलरामजी का समर्थन करने से रुक्मिणीजी अप्रसन्न होंगी और रुक्मी के वध को बुरा बतलाने से बलरामजी रुष्ट होंगे, अपने साले रुक्मी की मृत्यु पर भला-बुरा कुछ भी न कहा । इसके बाद अनिरुद्धजी का विवाह और शत्रु का वध दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर भगवान के आश्रित बलरामजी आदि यदुवंशी नवविवाहिता दुलहिन रोचना के साथ अनिरुद्धजी को श्रेष्ठ रथ पर चढ़ाकर भोजकट नगर से द्वारकापुरी को चले आये ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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