श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 69 श्लोक 30-39
दशम स्कन्ध: सप्ततितमोऽध्यायः(69) (उत्तरार्ध)
चक्रपाणे! आपने अठारह बार जरासन्ध से युद्ध किया और सत्रह बार उसका मान-मर्दन करके उसे छोड़ दिया। परन्तु एक बार उसने आपको जीत लिया। हम जानते हैं कि आपकी शक्ति, आपका बल-पौरुष अनन्त है। फिर भी मनुष्यों का-सा आचरण करते हुए आपने हारने का अभिनय किया। परन्तु इसी से उसका घमंड बढ़ गया है। हे अजित! अब वह यह जानकर हम लोगों को और भी सताता है कि हम आपके भक्त हैं, आपकी प्रजा हैं। अब आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा कीजिये’|
दूत ने कहा—भगवन्! जरासन्ध के बंदी नरपतियों ने इस प्रकार आपसे प्रार्थना की है। वे आपके चरणकमलों की शरण में हैं और आपका दर्शन चाहते हैं। आप कृपा करके उन दोनों का कल्याण कीजिये।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! राजाओं का दूत इस प्रकार कह ही रहा था कि परमतेजस्वी देवर्षि नारदजी वहाँ आ पहुँचे। उनकी सुनहरी जटाएँ चमक रहीं थी। उन्हें देखकर ऐसा मालूम हो रहा था, मानो साक्षात् भगवान सूर्य ही उदय हो गये हों । ब्रम्हा आदि समस्त लोकपालों के एकमात्र स्वामी भगवान श्रीकृष्ण उन्हें देखते ही सभासदों और सेवकों के साथ हर्षित होकर उठ खड़े हुए और सिर झुकाकर उनकी वन्दना करने लगे । जब देवर्षि नारद आसन स्वीकार करके बैठ गये, तब भगवान ने उनकी विधिपूर्वक पूजा की और अपनी श्रद्धा से उनको संतुष्ट करते हुए वे मधुर वाणी से बोले— ‘देवर्षे! इस समय तीनों लोकों में कुशल-मंगल तो है न’ ? आप तीनों लोकों में विचरण करते रहते हैं, इससे हमें बहुत बड़ा लाभ है कि घर बैठे सबका समाचार मिल जाता है । ईश्वर के द्वारा रचे हुए तीनों लोकों में ऐसी कोई बात नहीं है, जिसे आप न जानते हों। अतः हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि युधिष्ठिर आदि पाण्डव इस समय क्या करना चाहते हैं ?’
देवर्षि नारदजी ने कहा—सर्वव्यापक अनन्त! आप विश्व के निर्माता हैं और इतने बड़े मायावी हैं कि बड़े-बड़े मायावी ब्रम्हाजी आदि भी आपकी माया का पार नहीं पा सकते ? प्रभो! आप सबके घट-घट में अपनी अचिन्त्य शक्ति से व्याप्त रहते है—ठीक वैसे ही; जैसे अग्नि लकड़ियों में अपने को छिपाये रखता है। लोगों की दृष्टि सत्व आदि गुणों पर ही अटक जाती है, इससे आपको वे नहीं देख पाते। मैंने एक बार नहीं, अनेकों बार आपकी माया देखी है। इसलिये आप जो यों अनजान बनकर पाण्डवों का समाचार पूछते हैं, इसे मुझे कोई कौतूहल नहीं हो रहा है । भगवन्! आप अपनी माया से ही इस जगत् की रचना और संहार करते हैं, और आपकी माया के कारण ही यह असत्य होने पर सत्य के समान प्रतीत होता है। आप कब क्या करना चाहते हैं, यह बात भलीभाँति कौन समझ सकता है। आपका स्वरुप सर्वथा अचिंतनीय है। मैं तो केवल बार-बार आपको नमस्कार करता हूँ ।शरीर और इससे सम्बन्ध रखने वाली वासनाओं में फँसकर जीव जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकता रहता है तथा यह नहीं जानता कि मैं इस शरीर से कैसे मुक्त हो सकता हूँ। वास्तव में उसी के हित के लिये आप नाना प्रकार लीलावतार ग्रहण करते अपने पवित्र यश का दीपक जला देते हैं, जिसके सहारे वह इस अनर्थकारी शरीर से मुक्त हो सके। इसलिये मैं आपकी शरण में हूँ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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