श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 84 श्लोक 14-24

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:४४, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

दशम स्कन्ध: चतुरशीतितमोऽध्यायः(84) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुरशीतितमोऽध्यायः श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद


श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण अखण्ड ज्ञानसम्पन्न हैं। उसका यह गूढ भाषण सुनकर सब-के-सब ऋषि-मुनि चुप रहा गये। उनकी बुद्धि चक्कर में पड़ गयी, वे समझ ने सके की भगवान यह क्या कह रहे हैं । उन्होंने बहुत देर तक विचार करने के बाद यह निश्चय किया की भगवान सर्वेश्वर होने पर भी जो इस प्रकार सामान्य, कर्म-परतन्त्र जीव की भाँति व्यवहार कर रहे हैं—यह केवल लोक संग्रह के लिये ही है। ऐसा समझकर वे मुसकराते हुए जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण से कहने लगे । मुनियों ने कहा—भगवन्! आपकी माया से प्रजापतियों के अधीश्वर मरीचि आदि तथा बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानी हम लोग मोहित हो रहे हैं। आप स्वयं ईश्वर होते हुए भी मनुष्य की-सी चेष्टाओं से अपने को छिपाये रखकर जीव की भाँति आचरण करते हैं। भगवन्! सचमुच आपकी लीला अत्यन्त विचित्र है। परम आश्चर्यमयी है । जैसे पृथ्वी अपने विकारों–वृक्ष, पत्थर, घट आदि के द्वारा बहुत-से नाम और रूपों ग्रहण कर लेती है, वास्तव में वह एक ही है, वैसे ही आप एक और चेष्टाहीन होने पर भी अनेक रूप धारण कर लेते हैं और अपने-आप से इस जगत् की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। पर यह सब करते हुए भी इन कर्मों से लिप्त नहीं होते। जो सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदशून्य एक रस अनन्त है, उसका यह चरित्र लीलामात्र नहीं तो और क्या है ? धन्य है आपकी यह लीला! भगवन्! यद्यपि आप प्रकृति से परे, स्वयं परब्रम्ह परमात्मा हैं, तथापि समय-समय पर भक्तजनों की रक्षा और दुष्टों का दमन करने के लिये विशुद्ध सत्वमय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं और अपनी लीला के द्वारा सनातन वैदिक मार्गों की रक्षा करते हैं; क्योंकि सभी वर्णों और आश्रमों के रूप में आप स्वयं ही प्रकट हैं । भगवन्! वेद आपका विशुद्ध ह्रदय हैं; तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा उसी में आपके साकार-निराकार रूप और दोनों के अधिष्ठान-स्वरुप परब्रम्ह परमात्मा का साक्षात्कार होता है । परमात्मन्! ब्राम्हण ही वेदों के आधारभूत आपके स्वरुप की उपलब्धि के स्थान हैं; इसी से आप ब्राम्हणों का सम्मान करते हैं और इसी से आप ब्राम्हणभक्तों में अग्रगण्य भी हैं । आप सर्वविध कल्याण-साधनों की चरमसीमा हैं और संत पुरुषों की एकमात्र गति हैं। आपसे मिलकर आज हमारे जन्म, विद्या, तप और ज्ञान सफल हो गये। वास्तव में सबके परम फल आप ही हैं । प्रभो! आपका ज्ञान अनन्त है, आप स्वयं सच्चिदानन्दस्वरुप परब्रम्ह परमात्मा भगवान हैं। आपने अपनी अचिन्त्य शक्ति योगमाया के द्वारा अपनी महिमा छिपा रखी है, हम आपको नमस्कार करते हैं । ये सभा में बैठे हुए राजा लोग और दूसरों की तो बात ही क्या, स्वयं आपके साथ आहार-विहार करने वाले यदुवंशी लोग भी आपको वास्तव में नहीं जानते; क्योंकि आपने अपने स्वरुप को—जो सबका आत्मा, जगत् का आदिकारण और नियन्ता है—माया के परदे से ढक रखा है । जब मनुष्य स्वपन देखने लगता है, उस समय स्वपन के मिथ्या पदार्थों को ही सत्य समझ लेता है और नाममात्र की इन्द्रियों से प्रतीत होने वाले अपने स्वपन शरीर को ही वास्तविक शरीर मान बैठता है। उसे उतनी देर के लिये इस बात का बिलकुल ही पता नहीं रहता की स्वपन शरीर के अतिरिक्त एक जाग्रत्-अवस्था का शरीर भी है ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-