श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 42-52

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दशम स्कन्ध: अष्टम अध्याय (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टम अध्याय: श्लोक 42-52 का हिन्दी अनुवाद

यह मैं हूँ और ये मेरे पति तथा यह मेरा लड़का है, साथ ही मैं व्रजराज की समस्त संपत्तियों की स्वामिनी धर्मपत्नी हूँ; ये गोपियाँ गोपुर गोधन मेरे अधीन हैं—जिनकी माया से मुझे इस प्रकार की कुमति घेरे हुए है, वे भगवान ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं—मैं उन्हीं की शरण में हूँ’। जब इस प्रकार यशोदा माता श्रीकृष्ण का तत्व समझ गयीं, तब सर्वशक्तिमान् सर्व्यापक प्रभु ने अपनी पुत्रस्नेहमयी वैष्णवी योगमाया का उनके ह्रदय में संचार कर दिया । यशोदाजी को तुरंत वह घटना भूल गयी। उन्होंने अपने दुलारे लाल को गोद में उठा लिया। जैसे पहले उनके ह्रदय में प्रेम का समुद्र उमड़ता रहता था, वैसे ही फिर उमड़ने लगा । सारे वेद, उपनिषद्, सांख्य, योग और भक्तजन जिनके महात्म्य का गीत गाते-गाते अघाते नहीं—उन्हीं भगवान को यशोदाजी अपना पुत्र मानती थीं ।

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! नन्दबाबा ने ऐसा कौन-सा बहुत बड़ा मंगलमय साधन किया था ? और परमभाग्यवती यशोदाजी ने भी ऐसी कौन-सी तपस्या की थी, जिसके कारण स्वयं भगवान ने अपने श्रीमुख से उनका स्तनपान किया । भगवान श्रीकृष्ण की वे बाल-लीलाएँ, जो वे अपने ऐश्वर्य और महत्ता आदि को छिपाकर ग्वालबालों में करते हैं, इतनी पवित्र हैं कि उनका श्रवण-कीर्तन करने वाले लोगों के भी सारे पाप-ताप शान्त हो जाते हैं। त्रिकालदर्शी ज्ञानी पुरुष आज भी उनका गान करते रहते हैं। वे ही लीलाएँ उनके जन्मदाता माता-पिता देवकी-वसुदेवजी को तो देखने तक को न मिलीं और नन्द-यशोदा उनका अपार सुख लूट रहे हैं। इसका क्या कारण है ?

श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित्! नन्दबाबा पूर्वजन्म में एक श्रेष्ठ वसु थे। उनका नाम था द्रोण और उनकी पत्नी का नाम था धरा। उन्होंने ब्रम्हाजी के आदेशों का पालन करने की इच्छा से उनसे कहा— ‘भगवन्! जब हम पृथ्वी पर जन्म लें, तब जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण में हमारी अनन्य प्रेममयी भक्ति हो—जिस भक्ति के द्वारा संसार में लोग अनायास ही दुर्गतियों को पार कर जाते हैं’। ब्रम्हाजी ने कहा—‘ऐसा ही होगा।’ वे ही परमयशस्वी भवन्मय द्रोण व्रज में पैदा हुए और उनका नाम हुआ नन्द। और वे ही धरा इस जन्म में यशोदा के नाम से उनकी पत्नी हुईं । परीक्षित्! अब इस जन्म में जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले भगवान उनके पुत्र हुए और समस्त गोप-गोपियों की अपेक्षा इन पति-पत्नी नन्द और यशोदाजी का उनके प्रति अत्यन्त प्रेम हुआ । ब्रम्हाजी की बात सत्य करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ व्रज में रहकर समस्त व्रजवासियों को अपनी बाल-लीला से आनन्दित करने लगे ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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