श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 1-14

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द्वादश स्कन्ध: अष्टमोऽध्यायः (8)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: अष्टमोऽध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


मार्कण्डेयजी की तपस्या और वर-प्राप्ति शौनकजी ने कहा—साधुशिरोमणि सूतजी! आप आयुष्यमान् हों। सचमुच आप वक्ताओं के सिरमौर हैं। जो लोग संसार के अपार अन्धकार में भूल-भटक रहे हैं, उन्हें आप वहाँ से निकालकर प्रकाशस्वरुप परमात्मा का साक्षात्कार करा देते हैं। आप कृपा करके हमारे एक प्रश्न का उत्तर दीजिये । लोग कहते हैं कि मृकण्ड ऋषि के पुत्र मार्कण्डेय ऋषि चिरायु हैं और जिस समय प्रलय ने सारे जगत् को निगल लिया था, उस समय भी वे बचे रहे । परन्तु सूतजी! वे तो इसी कल्प में हमारे ही वंश में उत्पन्न हुए एक श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं और जहाँ तक हमें मालूम है, इस कल्प में अब तक प्राणियों का कोई प्रलय नहीं हुआ है । ऐसी स्थिति में यह बात कैसे सत्य हो सकती है कि जिस समय सारी पृथ्वी प्रलयकालीन समुद्र में डूब गयी थी, उस समय मार्कण्डेयजी उसमें डूब-उतरा रहे थे और उन्होंने अक्षयवट के पत्ते के दोने में अत्यन्त अद्भुत और सोये हुए बालमुकुन्द का दर्शन किया । सूतजी! हमारे मन में बड़ा सन्देह है और इस बात को जानने की बड़ी उत्कण्ठा है। आप बड़े योगी हैं, पौराणिकों में सम्मानित हैं। आप कृपा करे हमारा यह सन्देह मिटा दीजिये । सूतजी ने कहा—शौनकजी! आपने बड़ा सुन्दर प्रश्न किया। इससे लोगों का भ्रम मिट जायगा और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस कथा में भगवान नारायण की महिमा है। जो इसका गान करता है, उसके सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं । शौनकजी! मृकण्ड ऋषि ने अपने पुत्र मार्कण्डेय के सभी संस्कार समय-समय पर किये। मार्कण्डेयजी विधिपूर्वक वेदों का अध्ययन करके तपस्या और स्वाध्याय से सम्पन्न हो गये थे । उन्होंने आजीवन ब्रहचर्य का व्रत ले रखा था। शान्तभाव से रहते थे। सिर पर जटाएँ बढ़ा रखी थीं। वृक्षों की छाल का ही वस्त्र पहनते थे। वे अपने हाथों में कमण्डलु और दण्ड धारण करते, शरीर पर यज्ञोपवीत और मेखला शोभायमान रहती । काले मृग का चर्म, रुद्राक्षमाला और कुश—यही उनकी पूँजी थी। यह सब उन्होंने अपने आजीवन ब्रम्हचर्य व्रत की पूर्ति के लिये ही ग्रहण किया था। वे सायंकाल और प्रातःकाल अग्निहोत्र, सूर्योपस्थान, गुरुवन्दन, ब्राम्हण-सत्कार, मानस-पूजा और ‘मैं परमात्मा का स्वरुप ही हूँ’ इस प्रकार की भावना आदि के द्वारा भगवान की आराधना करते । सायं-प्रातः भिक्षा लाकर गुरुदेव के चरणों में निवेदन कर देते और मौन हो जाते। गुरूजी की आज्ञा होती तो एक बार खा लेते, अन्यथा उपवास कर जाते । मार्कण्डेयजी ने इस प्रकार तपस्या और स्वाध्याय में तत्पर रहकर करोड़ों वर्षों तक भगवान की आराधना की और इस प्रकार उस मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर ली, जिसको जीतना बड़े-बड़े योगियों के लिये भी कठिन है । मार्कण्डेयजी की मृत्यु-विजय को देखकर ब्रम्हा, भृगु, शंकर, दक्ष, प्रजापति, ब्रम्हाजी के अन्यान्य पुत्र तथा मनुष्य, देवता, पितर एवं अन्य सभी प्राणी अत्यन्त विस्मित हो गये । आजीवन ब्रम्हचर्य-व्रतधारी एवं योगी मार्कण्डेयजी इस प्रकार तपस्या, स्वाधाय और संयम आदि के द्वारा अविद्या आदि सारे क्लेशों को मिटाकर शुद्ध अन्तःकरण से इन्द्रियातीत परमात्मा का ध्यान करने लगे । योगी मार्कण्डेयजी महायोग के द्वारा अपना चित्त भगवान के स्वरुप में जोड़ते रहे। इस प्रकार साधन करते-करते बहुत समय—छः मन्वन्तर व्यतीत हो गये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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