श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 27-37

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द्वादश स्कन्ध: अष्टमोऽध्यायः (8)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: अष्टमोऽध्यायः श्लोक 27-37 का हिन्दी अनुवाद

कभी-कभी वह तिरछी चितवन से इधर-उधर देख लिया करती थी। उसके नेत्र कभी गेंद के साथ आकाश की ओर जाते, कभी धरती की ओर और कभी हथेलियों की ओर। वह बड़े हाव-भाव के साथ गेंद की ओर दौड़ती थी। उसी समय उसकी करधनी टूट गयी और वायु ने उसकी झीनी-सी साड़ी को शरीर से अलग कर दिया । कामदेव ने अपना उपयुक्त अवसर देखकर और यह समझकर कि अब मार्कण्डेय मुनि को मैंने जीत लिया, उनके ऊपर अपना बाण छोड़ा। परन्तु उसकी एक न चली। मार्कण्डेयजी मुनि पर उसका सारा उद्दोग निष्फल हो गया—ठीक वैसे ही, जैसे असमर्थ और अभागे पुरुषों के प्रयत्न विफल हो जाते हैं । शौनकजी! मार्कण्डेयजी मुनि अपरिमित तेजस्वी थे। काम, वसन्त आदि आये तो थे इसलिये कि उन्हें तपस्या से भ्रष्ट कर दें; परन्तु अब उनके तेज से जलने लगे और ठीक उसी प्रकार भाग गये, जैसे छोटे-छोटे बच्चे सोते हुए साँप को जगाकर भाग जाते हैं । शौनकजी! इन्द्र के सेवकों ने इस प्रकार मार्कण्डेयजी को पराजित करना चाह, परन्तु वे रत्ती भर भी विचलित न हुए। इतना ही नहीं, उनके मन में इस बात को लेकर भी अहंकार का भाव न हुआ। सच है, महापुरुषों के लिये यह कौन-सी आश्चर्य की बात है । जब देवराज इन्द्र ने देखा कि कामदेव अपनी सेना के साथ निस्तेज-हतप्रभ होकर लौटा है और सुना कि ब्रम्हर्षि मार्कण्डेयजी परम प्रभावशाली हैं, तब उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ । शौनकजी! मार्कण्डेयजी मुनि तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा भगवान में चित्त लगाने का प्रयत्न करते रहते थे। अब उन पर कृपा प्रसाद की वर्षा करने के लिये मुनिजन-नयन-मनोहारी नरोत्तम नर और भगवान प्रकट हुए । उन दोनों में एक का शरीर गौरवर्ण था और दूसरे का श्याम। दोनों के ही नेत्र तुरंत के खिले हुए कमल के समान कोमल और विशाल थे। चार-चार भुजाएँ थीं। एक मृगचर्म पहने हुए थे तो दूसरे वृक्ष की छाल। हाथों में कुश लिये हुए थे और गले में तीन-तीन सूत के यज्ञोपवीत शोभायमान थे। वे कमण्डलु और बाँस का सीधा दण्ड ग्रहण किये हुए थे । कमल गट्टे की माला और जीवों को हटाने के लिये वस्त्र की कूँची भी रखे हुए थे। ब्रम्हा, इन्द्र आदि के भी पूज्य भगवान नर-नारायण कुछ ऊँचे कद के थे और वेद धारण किये हुए थे। उनके शरीर से चमकती हुई बिजली के समान पीले-पीले रंग की स्वयं तप ही मुर्तिमान् हो गया हो । जब मार्कण्डेयजी मुनि ने देखा कि भगवान ने साक्षात् स्वरुप नर-नारायण ऋषि पधारे हैं, तब वे बड़े आदर भाव से उठकर खड़े हो गये और धरती पर दण्डवत् लोटकर साष्टांग प्रणाम किया । भगवान के दिव्य दर्शन से उन्हें इतना आनन्द हुआ कि उनका रोम-रोम, उनकी सारी इन्द्रियाँ एवं अन्तःकरण शान्ति के समुद्र में गोता खाने लगे। शरीर पुलकित हो गया। नेत्रों में आँसू उमड़ आये, जिसके कारण वे उन्हें भर आँख देख भी न सकते । तदनन्तर वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए। उसका अंग-अंग भगवान के सामने झुका जा रहा था। उनके ह्रदय में उत्सुकता तो इतनी थी, मानो वे भगवान का आलिंगन कर लेंगे। उनसे और कुछ तो बोला न गया, गद्गद वाणी से केवल इतना ही कहा—‘नमस्कार! नमस्कार’ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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