श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 30-39
प्रथम स्कन्धः एकादश अध्यायः (11)
माताओं से आज्ञा लेकर वे अपने समस्त भोग-सामग्रियों से सम्पन्न सर्वश्रेष्ठ भवन में गये। उसमें सोलह हजार पत्नियों के अलग-अलग महल थे । अपने प्राण नाथ भगवान श्रीकृष्ण को बहुत दिन बाहर रहने के बाद घर आया देखकर रानियों के ह्रदय में बड़ा आनन्द हुआ। उन्हें अपने निकट देखकर वे एकाएक ध्यान छोड़कर उठ खड़ी हुई; उन्होंने केवल आसन को ही नहीं; बल्कि उन नियमों को भी त्याग दिया, जिन्हें उन्होंने पति के प्रवासी होने पर ग्रहण किया था। उस समय उनके मुख और नेत्रो में लज्जा छा गयी । भगवान के प्रति उनका भाव बड़ा ही गम्भीर था। उन्होंने पहले मन-ही-मन, फिर नेत्रों के द्वारा और तत्पश्चात् पुत्रों के बहाने शरीर से उनका आलिंगन किया। शौनकजी! उस समय उनके नेत्रों में जो प्रेम के आँसू छलक आये थें, उन्हें संकोंच वश उन्होंने बहुत रोका। फिर भी विवशता के कारण वे ढलक ही गये । यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण एकान्त में सर्वदा ही उनके पास रहते थे, तथापि उनके चरण-कमल उन्हें पद-पद पर नये-नये जान पड़ते। भला, स्वभाव से ही चंचल लक्ष्मी जिन्हें एक क्षण के लिये भी कभी नहीं छोड़तीं, उनकी सनिधि से किस स्त्री की तृप्ति हो सकती है । जैस वायु बाँसों के संघर्ष से दावानल पैदा करके उन्हें जला देता है, वैसे ही पृथ्वी के भारभूत और शक्तिशाली राजाओं में परसपर फूट डालकर बिना शस्त्र ग्रहण किये ही भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें कई अक्षौहिणी सेना सहित एक-दूसरे से मरवा डाला और उसके बाद आप भी उपराम हो गये । साक्षात् परमेश्वर ही अपनी लीला से इस मनुष्य लोक में अवतीर्ण हुए थे और सहस्त्रों रमणी-रत्नों में रहकर उन्होंने साधारण मनुष्य की तरह क्रीड़ा की । जिनकी निर्मल और मधुर हँसी उनके ह्रदय के उन्मुक्त भावों को सूचित करने वाली थी, जिनकी लजीली चितवन की चोट से बेसुध होकर विश्व विजयी कामदेव ने भी अपने धनुष का परित्याग कर दिया था—वे कमनीये कामिनियाँ अपने काम-विलासों से जिनके मन में तनिक भी क्षोभ नहीं पैदा कर सकीं, उन असंग भगवान श्रीकृष्ण को संसार के लोग अपने ही समान कर करते देखकर आसक्त मनुष्य समझते हैं—यह उनकी मूर्खता है । यही तो भगवान की भगवत्ता है कि वे प्रकृति में स्थित होकर भी उसके गुणों से कभी लिप्त नहीं होते, जैसे भगवान की शरणागत बुद्धि अपने में रहने वाले प्राकृत गुणों से लिप्त नहीं होती । वे मूढ़ स्त्रियाँ भी श्रीकृष्ण को अपना एकान्त सेवी, स्त्री परायण भक्त ही समझ बैठी थीं; क्योंकि वे अपने स्वामी के ऐश्वर्य को नहीं जानती थीं—ठीक वैसे ही जैसे अहंकार की वृत्तियाँ ईश्वर को अपने धर्म से युक्त मानती हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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