श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 46-59
प्रथम स्कन्धःत्रयोदश अध्यायः (13)
हाथ वालों के बिना हाथ वाले, चार पैर वाले पशुओं के बिना पैर वाले (तृणादि) और उनमें भी बड़े जीवों के छोटे जीव आहार हैं। इस प्रकार एक जीव दूसरे जीव के जीवन का कारण हो रहा है । इन समस्त रूपों में जीवों के बाहर और भीतर वही एक स्वयं प्रकाश भगवान्, जो सम्पूर्ण आत्माओं के आत्मा हैं, माया के द्वारा अनेकों प्रकार से प्रकट हो रहे हैं; तुम केवल उन्हीं को देखो । महाराज! समस्त प्राणियों को जीवन दान देने वाले वे ही भगवान इस समय इस पृथ्वीतल पर देवद्रोहियों का नाश करने के लिये कालरूप से अवतीर्ण हुए हैं । अब वे देवताओं का कार्य पूरा कर चुके हैं। थोडा-सा काम और शेष है, उसी के लिये वे रुके हुए हैं। जब तक वे प्रभु यहाँ हैं तब तक तुम लोग भी उनकी प्रतीक्षा करते रहो ।
धर्मराज! हिमालय के दक्षिण भाग में, जहाँ सप्तर्षियों की प्रसन्नता के लिये गंगाजी ने अलग-अलग सात धाराओं के रूप में अपने को सात भागों में विभक्त कर दिया है, जिसे ‘सप्तस्त्रोत’ कहते हैं, वहीं ऋषियों के आश्रम पर धृतराष्ट्र अपनी पत्नी गान्धारी और विदुर के साथ गये हैं ।
वहाँ वे त्रिकाल स्नान और विधिपूर्वक अग्निहोत्र करते हैं। अब उनके चित्त में किसी प्रकार की कामना नहीं हैं, वे केवल जल पीकर शान्ति चित्त से निवास करते हैं । आसन जीतकर प्राणों को वश में करके उन्होंने अपनी छहों इन्द्रियों को विषयों से लौटा लिया है। भगवान की धारणा से उनके तमोगुण, रजोगुण और सत्वगुण के मल नष्ट हो चुके हैं । उन्होंने अहंकार को बुद्धि के साथ जोड़कर और उसे क्षेत्रज आत्मा में लीन करके उसे भी महाकाश में घटाकाश के समान सर्वाधिष्ठान ब्रम्ह में एक कर दिया है। उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों और मन को रोककर समस्त विषयों को बाहर से ही लौटा दिया है और माया के गुणों से होने वाले परिणामों को सर्वथा मिटा दिया है। समस्त कर्मों का संन्यास करके वे इस समय ठूँठ की तरह स्थिर होकर बैठे हुए हैं, अतः तुम उनके मार्ग में विघ्न रूप मत बनना । धर्मराज! आज से पाँचवें दिन वे अपने शरीर का परित्याग कर देंगे और वह जलकर भस्म हो जायगा । गार्हपत्यादि अग्नियों के द्वारा पर्णकुटी के साथ अपने पति के मृत देह की जलते देखकर बाहर खड़ी हुई साध्वी गान्धारी भी पति का अनुगमन करती हुई उसी आग में प्रवेश कर जायँगी । धर्मराज! विदुरजी अपने भाई का आश्चर्यमय मोक्ष देखकर हर्षित और वियोग देखकर दुःखित होते हुए वहाँ से तीर्थ-सेवन के लिये चले जायँगे । देवर्षि नारद यों कहकर तुम्बुरु के साथ स्वर्ग को चले गये को चले गये। धर्मराज युधिष्ठिर ने उनके उपदेशों को ह्रदय में धारण करके शोक को त्याग दिया ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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