श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 1-13

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प्रथम स्कन्धः एकोनविंश अध्यायः (19)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः एकोनविंश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
परीक्षित् का अनशनव्रत और शुकदेवजी का आगमन


सूतजी कहते हैं—राजधानी में पहुँचने पर राजा परीक्षित् को अपने उस निन्दनीय कर्म के लिये बड़ा पश्चाताप हुआ। वे अत्यन्त उदास हो गये और सोचने लगे—‘मैंने निरपराध एवं तेज छिपाये हुए ब्राम्हण के साथ अनार्य पुरुषों के समान बड़ा नीच व्यवहार किया। यह बड़े खेद की बात है । अवश्य ही उन महात्मा के अपमान के फलस्वरुप शीग्र-से-शीघ्र मुझ पर कोई घोर विपत्ति आवेगी। मैं भी ऐसा ही चाहता हूँ; क्योंकि उससे मेरे पाप का प्रायश्चित हो जायगा और फिर कभी मैं ऐसा काम करने का दुःसाहस नहीं करूँगा । ब्राम्हणों की क्रोधाग्नि आज ही मेरे राज्य, सेना और भरे-पूरे खजाने को जलाकर खाक कर दे—जिससे फिर कभी मुझ दुष्ट की ब्राम्हण, देवता और गौओं के प्रति ऐसी पाप बुद्धि न हो । वे इस प्रकार की चिन्ता कर ही रहे थे कि उन्हें मालूम हुआ—ऋषि कुमार के शाप से तक्षक मुझे डसेगा। उन्हें वह धधकती हुई आग के समान तक्षक का डसना बहुत भला मालूम उन्होंने सोचा कि बहुत दिनों से मैं संसार के आसक्त हो रहा था, अब मुझे शीघ्र वैराग्य होने का कारण प्राप्त हो गया । वे इस लोक और परलोक के भोगों को तो पहले से ही तुच्छ और त्याज्य समझते थे। अब उनका स्वरुपतः त्याग करके भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा को ही सर्वोपरि मानकर आमरण अनशनव्रत लेकर वे गंगा तट पर बैठ गये । गंगाजी का जल भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का वह पराग लेकर प्रवाहित होता है, जो श्रीमती तुलसी की गन्ध से मिश्रित है। यही कारण है कि वे लोकपालों के सहित ऊपर-नीचे के समस्त लोकों को पवित्र करती हैं। कौन ऐसा मरणासन्न पुरुष होगा, जो उनका सेवन न करेगा ? इस प्रकार गंगाजी के तट पर आमरण अनशन का निश्चय करके उन्होंने समस्त आसक्तियों का परित्याग कर दिया और वे मुनियों का व्रत स्वीकार करके अनन्य भाव से श्रीकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने लगे । उस समय त्रिलोकी को पवित्र करने वाले बड़े-बड़े महानुभाव ऋषि-मुनि अपने शिष्यों के साथ वहाँ पधारे। संतजन प्रायः तीर्थ यात्रा के बहाने स्वयं उन तीर्थ स्थानों को ही पवित्र करते हैं । उस समय वहाँ पर अत्रि, वसिष्ठ, च्यवन, शरद्वान्, अरिष्टनेमि, भृगु, अंगिरा, पराशर, विश्वामित्र, परशुराम, उतथ्य, इन्द्रप्रमद, इध्मवाह, मेधातिथि, देवल, आर्ष्टिषेण, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, और्व, कवष, अगस्त्य, भगवान व्यास, नारद तथा इनके अतिरिक्त और भी कई श्रेष्ठ देवर्षि, ब्रम्हर्षि तथा अरुणादि राजर्षिवर्यो का शुभागमन हुआ। इस प्रकार विभिन्न गोत्रों के मुख्य-मुख्य ऋषियों को एकत्र देखकर राजा ने सबका यथायोग्य सत्कार किया और उनके चरणों पर सिर रखकर वन्दना की । जब सब लोग आराम से अपने-अपने आसनों पर बैठ गये, तब महाराज परीक्षित् ने उन्हें फिर से प्रणाम किया और उनके सामने खड़े होकर शुद्ध ह्रदय से अंजलि बाँधकर वे जो कुछ करना चाहते थे, उसे सुनाने लगे । राजा परीक्षित् ने कहा—अहो! समस्त राजाओं में हम धन्य हैं। धन्यतम हैं; क्योंकि अपने शील-स्वभाव के कारण हम आप महापुरुषों के कृपा पात्र बन गये हैं। राजवंश के लोग प्रायः निन्दित कर्म करने के कारण ब्राम्हणों के चरण-धोवन से दूर पड़ जाते हैं—यह कितने खेद की बात है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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