श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 16-33

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प्रथम स्कन्धः चतुर्थ अध्यायः(4)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः चतुर्थ अध्यायः श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद
महर्षि व्यास का असन्तोष


महर्षि भूत और भविष्य को जानते थे। उनकी दृष्टि अचूक थी। उन्होंने देखा कि जिसको लोग जान नहीं पाते, ऐसे समय के फेर से प्रत्येक युग में धर्म संकरता और उसके प्रभाव से भौतिक वस्तुओं की भी शक्ति का ह्रास होता रहता है। संसार के लोग श्रद्धाहीन और शक्तिरहित हो जाते हैं। उनकी बुद्धि कर्तव्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाती और आयु भी कम हो जाती है। लोगों की इस भाग्यहीनता को देखकर उन मुनीश्वर ने अपनी दिव्य दृष्टि से समस्त वर्णों और आश्रमों का हित कैसे हो, इस पर विचार किया । उन्होंने सोचा कि वेदोक्त चातुर्होत्र कर्म लोगों का ह्रदय शुद्ध करने वाला है। इस दृष्टि से यज्ञों का विस्तार करने के लिये उन्होंने एक ही वेद के चार विभाग कर दिये । व्यासजी के द्वारा ऋक्, यजुः, साम और अथर्व—इन चार वेदों का उद्धार (पृथक्करण) हुआ। इतिहास और पुराणों को पाँचवाँ वेद कहा जाता है । उनमें से ऋग्वेद के पैल, सामगान के विद्वान् जैमिनि एवं यजुर्वेद के एकमात्र स्नातक वैशम्पायन हुए । अथर्ववेद में प्रवीण हुए दरुणनन्दन सुमन्तु मुनि। इतिहास और पुराणों के स्नातक मेरे पिता रोमहर्षण थे । इन पूर्वोक्त ऋषियों ने अपनी-अपनी शाखा को और भी अनेक भागों में विभक्त कर दिया। इस प्रकार शिष्य, प्रशिष्य और उनके शिष्यों द्वारा वेदों की बहुत-सी शाखाएँ बन गयीं । कम समझने वाले पुरुषों पर कृपा करके भगवान वेदव्यास ने इसलिये ऐसा विभाग कर दिया कि जिन लोगों को स्मरण शक्ति नहीं है या कम है, वे भी वेदों को धारण कर सकें । स्त्री, शूद्र और पतित द्विजाति—तीनों ही वेद-श्रवण के अधिकारी नहीं हैं। इसलिये वे कल्याणकारी शास्त्रोक्त कर्मों के आचरण में भूल कर बैठते हैं। अब इसके द्वारा उनका भी कल्याण हो जाय, यह सोचकर महामुनि व्यासजी ने बड़ी कृपा करके महाभारत इतिहास रचना की । शौनकादि ऋषियों! यद्यपि व्याजी इस प्रकार अपनी पूरी शक्ति से सदा-सर्वदा प्राणियों के कल्याण में ही लगे रहे, तथापि उनके ह्रदय को सन्तोष नहीं हुआ। उनका मन कुछ खिन्न-सा हो गया। सरस्वती नदी के पवित्र तट पर एकान्त में बैठकर धर्मवेत्ता व्यासजी मन-ही-मन विचार करते हुए इस प्रकार कहने लगे—‘मैंने निष्कपट भाव से ब्रम्ह्चर्यादी व्रतों का पालन करते हुए वेद, गुरुजन और अग्नियों का सम्मान किया है और उनकी आज्ञा का पालन किया है । महाभारत की रचना के बहाने मैंने वेद के अर्थ को खोल दिया है—जिससे स्त्री, शूद्र आदि भी अपने-अपने धर्म-कर्म का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं । यद्यपि मैं ब्रम्हतेज से सम्पन्न एवं समर्थ हूँ, तथापि मेरा ह्रदय कुछ अपूर्णकाम-सा जान पड़ता है । अवश्य ही अब तक मैंने भगवान को प्राप्त कराने वाले धर्मों का प्रायः निरूपण नहीं किया है। वे ही धर्म परमहंसों को प्रिय हैं और वे ही भगवान को भी प्रिय हैं (हो-न-हो मेरी अपूर्णता का यही कारण है)’। श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास इस प्रकार अपने को अपूर्ण-सा मानकर जब खिन्न हो रहे थे, उसी समय पूर्वोक्त आश्रम पर देवर्षि नारदजी आ पहुँचे । उन्हें आया देख व्यासजी तुरन्त खड़े हो गये। उन्होंने देवताओं के द्वारा सम्मानित देवर्षि नारद की विधिपूर्वक पूजा की ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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