श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 49-58
प्रथम स्कन्धः सप्तम अध्यायः(7)
सूतजी ने कहा—शौनकादि ऋषियों! द्रौपदी की बात धर्म और न्याय के अनुकूल थी। उसमें कपट नहीं था, करुणा और समता थी। अतएव राजा युधिष्ठिर ने रानी के इन हित भरे श्रेष्ठ वचनों का अभिनन्दन किया । साथ ही नकुल, सहदेव, सात्यकि, अर्जुन, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण और वहाँ पर उपस्थित सभी नर-नारियों ने द्रौपदी की बात समर्थन किया । उस समय क्रोधित होकर भीमसेन ने कहा, ‘जिसने सोते हुए बच्चों को न अपने लिये न अपने स्वामी के लिये, बल्कि व्यर्थ ही मार डाला, उसका तो वध ही उत्तम है’। भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी और भीमसेन की बात सुनकर और अर्जुन की ओर देखकर कुछ हँसते हुए-से कहा ।
भगवान श्रीकृष्ण बोले—‘पतित ब्राम्हण का भी वध नहीं करना चाहिये और आततायी को मार ही डालना चाहिये’—शास्त्रों में मैंने ही ये दोनोंन बाते कहीं हैं। इसलिये मेरी दोनों आज्ञाओं का पालन करो । तुमने द्रौपदी को सान्त्वना देते समय जो प्रतिज्ञा की थी उसे भी सत्य करो; साथ भीमसेन, द्रौपदी और मुझे जो प्रिय हो, वह भी करो ।
सूतजी कहते हैं—अर्जुन भगवान के ह्रदय की बात तुरंत ताड़ गये और उन्होंने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर की मणि उसके बालों के साथ उतार ली । बालकों की हत्या करने से वह श्रीहीन तो पहले ही हो गया था, अब मणि और ब्रम्हतेज से भी रहित हो गया। इसके बाद उन्होंने रस्सी का बन्धन खोलकर उसे शिविर से निकाल दिया । मूँड देना, धन छीन लेना और स्थान से बाहर निकल देना—यही ब्रम्हणाधमों का वध है। उनके लिये इससे भिन्न शारीरिक वध का विधान नहीं है । पुत्रों की मृत्यु से द्रौपदी और पाण्डव सभी शोकातुर हो रहे थे। अब उन्होंने अपने मरे हुए भाई बन्धुओं की दाहादि अन्त्येष्टि किया की ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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