महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 19 श्लोक 1-16
एकोनविंश (19) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
युधिष्ठिर बोले- तात ! मैं धर्म और ब्राह्म का प्रति पादन करने वाले अपर तथा पर दोनों प्रकार के शास्त्रों को जानता हॅूं। वेद में दोनां प्रकार के वचन उपलब्ध होते हैं- ’कर्म करो और कर्म छोड़ो’- इन दोनों का मुझे ज्ञान है। परस्पर विरोधी भावों से युक्त जो शास्त्र- वाक्य हैं, उन पर भी मैंने युक्तिपूर्वक विचार किया है। वेद में उन दोनों प्रकार के वाक्यों का जो सुनिश्चित सिद्धान्त है, उसे भी मैं विधि पूर्वक जानता हू। तुम तो केवल अस्त्रविद्या के पण्डित हो और वीरव्रत का पालन करने वाले हो। शास्त्रों के तात्पर्य को यथार्थ रूप से जानने की शक्ति तुममें किसी प्रकार नहीं है। जो लोग शास्त्रों के सूक्ष्म रहस्य को समझने वाले हैं और धर्म का निर्णय करने में कुशल हैं, वे भी मुझे इस प्रकार उपदेश नहीं दे सकते। यदि तुम धर्म पर दृष्टि रहखते हो तो मेरे इस कथन की यथार्थता का अनुभव करोगे। अर्जुन! कुन्तीनन्दन! तुमने भ्रातृस्नेहवश जो बात कही है, वह न्यायसंगत और उचित है। मैं उससे तुम पर प्रसन्न ही हुआ हूଁ। सम्पूर्ण युद्ध धर्मां मे और संग्राम करने की कुशलता में तुम्हारी समानता करने वाला तीनों लोकों में कोई नहीं है। धर्नजय! धर्म का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म एवं दुर्बोध कहा गया है। उसमें तुम्हारा प्रवेश होना अत्यन्त कठिन है।मैरी बुद्धि भी उसे समझती है या नहीं, यह आशंका तुम्हें नहीं करनी चाहिये। तुम युद्ध शास्त्र के ही विद्वान् हो, तुमने कभी वृद्ध पुरूषों का सेवन नहीं किया है, अतः संक्षेप और विस्तार के साथ धर्म को जानने वाले उन महापुरूषों का क्या सिद्धान्त है, इसका तुम्हें पता नहीं है । जिन महानुभवों की बुद्धि परम कल्याण में लगी हुई है, उन बुद्धि मानों का निर्णय इस प्रकार है। तपस्या, त्याग और विधि विधान से अतीत(ब्राहमज्ञान) इनमें से पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है। कुन्तीनन्दन! तुम जो यह मानते हो कि धन से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है, उसके विषय मैं तुम्हें ऐसाी बात बता रहा हूଁ, जिससे तुम्हारी समझ में आ जायगा कि धन प्रधान नहीं है। इस जगत् में बहुत-से तपस्या और स्वाध्याय में लगे हुए धर्मात्मा पुरूष देखे जाते हैं तथा ऋषि तो तपस्वी होते ही हैं। इन सबको सनातन लोकों की प्राप्ति होती है। कितने ही ऐसे धीर पुरूष हैं, जिनके शत्रु पैदा ही नहीं हुए। ये तथा और भी बहुत-से वनवासी हैं, जो वन में स्वाध्याय करके स्वर्गलोक में चले गये हैं। बहुत- से आर्य पुरूष इन्द्रियों को उनके विषयों से रोककर अविवेक जनित अज्ञान का त्याग करके उत्तरमार्ग (देवयान) के द्वारा त्यागी पुरूषों के लोकों में चले गये। इसके सिवा जो दक्षिण मार्ग है, जिसे प्रकाशपूर्ण बताया गया है, वहा जो लोक हैं, वे सकाम कर्म करने वाले उन गृहस्थों के लिये हैं, जो श्मशान भूमिका सेवन करते हैं (जन्म-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं)। पंरतु मोक्ष-मार्ग से चलने वाले पुरूष जिस गति का साक्षात् कार करते हैं, वह अनिर्देश्य है; अतः ज्ञानयोग ही सब साधनों में प्रधान एवं अभीष्ट है, किन्तु उसके स्वरूप को समझना बहुत कठिन है। कहते हैं, किसी समय विद्वान् पुरूषों ने सार और असार वस्तु का निर्णय करने की इच्छा से इकट्ठे होकर समस्त शास्त्रों का बार-बार स्मरण करते हुए यह विचार आरम्भ किया कि इस गार्हस्थ्य-जीवन में कुछ सार है या इसके त्याग में सार है?
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