महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 301 श्लोक 88-105

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एकत्रिशततम (301) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकत्रिशततम अध्याय श्लोक 88-116 का हिन्दी अनुवाद

शत्रुओं को ताप देने वाले नरेश ! जब शरीरधारी प्राणी इन्द्रियों सहित निद्रित हो जाता है, तब उसका सूक्ष्‍मशरीर आकाश में वायु के समान सर्वत्र विचरण करने लगता है अर्थात स्‍वप्‍न देखने लगता है । प्रभो ! भरतनन्‍दन ! वह जाग्रत-अवस्‍था की भांति स्‍वप्‍न में भी यथोचित रीति से दृश्‍य वस्‍तुओं को देखता है तथा स्‍पृश्‍य पदार्थों का स्‍पर्श करता है। सारांश यह कि सम्‍पूर्ण विषयों का वह जाग्रत के समान ही अनुभव करता है । फिर सुषप्ति-अवस्‍था होने पर विषय-ज्ञान में असमर्थ हुई सम्‍पूर्ण इन्द्रियां अपने-अपने स्‍थान में उसी प्रकार विधिवत लीन हो जाती हैं, जैसे विषहीन सर्प (भय से) छिपे रहते हैं । स्‍वप्‍नावस्‍था में अपने-अपने स्‍थानों में स्थित हुई सम्‍पूर्ण इन्द्रियों की समस्‍त गतियों को आक्रान्‍त करके जीवात्‍मा सूक्ष्‍म विषयों में विचरण करता है, इसमें संदेह नहीं है । भरतनन्‍दन ! धर्मात्‍मा राजा युधिष्ठिर ! परब्रह्म परमात्‍मा सात्विक, राजस और तामस गुणों को एवं बुद्धि, मन, आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्‍वी - इन सबके सम्‍पूर्ण गुणों को तथा अन्‍य सब वस्‍तुओं को भी अपने गुणों द्वारा व्‍याप्‍त करके सभी क्षेत्रज्ञों (जीवात्‍माओं) में स्थित हैं, प्रभो ! जैसे शिष्‍य अपने गुरू के पीछे चलते हैं, उसी प्रकार मन, इन्दियां और शुभाशुभ कर्म भी उस जीवात्‍मा के पीछे-पीछे चलते हैं। जब जीवात्‍मा इन्द्रियों और प्रकृति को भी लाँघकर जाता है, तब उस नारायण स्‍वरूप अविनाशी परमात्‍मा को प्राप्‍त हो जाता है, जो द्वन्‍द्वरहित और माया से अतीत है । भारत ! पुण्‍य-पाप से रहित हुआ सांख्‍ययोगी मुक्‍त होकर जब उन्‍हीं निर्गुण-निर्विकार नारायणस्‍वरूप परमात्‍मा में प्रविष्‍ट हो जाता है, फिर वह इस संसार में नहीं लौटता है । भरतनन्‍दन ! इस प्रकार जीवन्‍मुक्‍त पुरूष का आत्‍मा तो परमात्‍मा में मिल जाता है, परंतु प्रारब्‍धवश जबतक शरीर रहता है, तब तक उसके मन और इन्द्रियां शेष रहते हैं और गुरू के आदेश पालन करने वाले शिष्‍यों के समान यथासमय यहां गमनागमन करते हैं । कुन्‍तीनन्‍दन ! इस प्रकार बताये हुए ज्ञान से सम्‍पन्‍न मोक्षाधिकारी तथा आध्‍यात्मिक उन्‍नति की अभिलाषा रखने वाला पुरूष्‍ थोड़े ही समय में परम शान्ति प्राप्‍त कर सकता है । राजन ! कुन्‍तीकुमार ! महाज्ञानी सांख्‍ययोगी ऊपर बताए हुए इसी परमगति को प्राप्‍त होते हैं। इस ज्ञान के समान दूसरा कोई ज्ञान नहीं है । सांख्‍यज्ञान सबसे उत्‍कृष्ट माना गया है। इस विषय में तुम्‍हें तनिक भी संशय नहीं होना चाहियें । इसमें अक्षर, ध्रुव एवं पूर्ण सनातन ब्रह्म का ही प्रतिपादन हुआ है । वह ब्रह्म आदि, मध्‍य और अन्‍त से रहित, निर्द्वन्‍द्व, जगत की उत्‍पत्ति का हेतुभूत, शाश्‍वत, कूटस्‍थ और नित्‍य है, ऐसा मनीषी पुरूष कहते हैं । संसार की सृष्टि और प्रलयरूप सारे विकार उसी से सम्‍भव होते हैं। महर्षि अपने शास्‍त्रों में उसी की प्रशंसा करते हैं । समस्‍त ब्राह्मण, देवता और शान्ति का अनुभव करने वाले लोग उसी अनन्‍त, अच्‍युत, ब्राह्मणहितैषी नरदेव ! यह मैंने तुम से सांख्‍य का तत्‍व बतलाया है। इस पुरातन विश्‍व के रूप में साक्षात भगवान नारायण ही सर्वत्र विराजमान हैं। वे ही सृष्ठि के समय जगत की सृष्टि और संहार काल में उसको अपने में विलीन कर लेते हैं । इस प्रकार जगत को अपने शरीर के भीतर ही स्‍थापित करके वे जगत के अन्‍तरात्‍मा भगवान नारायण एकार्णव के जल में शयन करते हैं ।

इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में सांख्‍यतत्‍व का वर्णनविषयक तीन सो एकवाँ अध्‍याय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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