महाभारत वन पर्व अध्याय 211 श्लोक 18-27

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:१६, ३० जुलाई २०१५ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकादशधिकद्विशततम (211) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व )

महाभारत: वन पर्व: एकादशधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 18-27 का हिन्दी अनुवाद
पचमहाभूतों के गुणों का और इन्द्रिय निग्रह का वर्णन

विप्रवर । आप मुझ से जो कुछ पूछते हैं, उसके उत्तर में मैं यह बता रहा हूं कि इस सब का मूल तप है। इन्द्रियों का संयम करने से ही वह तपस्‍या सम्‍पन्न होती है, और किसी प्रकार से नहीं । स्‍वर्ग और नरक आदि जो कुछ भी है, वह सब इन्द्रियां ही हैं अर्थात् इन्द्रियां ही उनकी कारण हैं। वश में की हुई इन्द्रियां स्‍वर्ग की प्राप्ति कराने वाली हैं और जिन्‍हें विषयों की ओर खुला छोड़ दिया गया है, वे इन्द्रियां नरक में डालने वाली हैं । योग का सम्‍पूर्ण रुप से अनुष्‍ठान यह है कि मनसहित समस्‍त इन्द्रियों को काबू में रखा जाय। यही सारी तपस्‍या का मूल है और इन्द्रियों को वश में न रखना ही नरक का हेतु है । इन्द्रियों के संसर्ग से ही मनुष्‍य नि:संदेह दुर्गुण-दुराचार आदि दोषों को प्राप्‍त होते हैं। उन्‍हीं इन्द्रियों को अच्‍छी तरह वश में कर लेने पर उन्‍हें सर्वथा सिद्धि प्राप्‍त हो सकती है । जो अपने शरीर में ही सदा विद्यमान रहने वाले मन सहित छहों इन्द्रियों पर अधिकार पा लेता है, वह जितेन्द्रिय पुरुष पापों में नहीं लगता, फिर पाप‍जनित अनर्थो से तो उसका संयोग ही कैसे हो सकता है । पुरुष का यह प्रत्‍यक्ष देखने में आने वाला स्‍थूल शरीर रथ है। आत्‍मा (बुद्धि) सारथि है और इन्द्रियों को अश्रव बताया गया है। जैसे कुशल, सावधान एवं धीर रथी, उत्तम घोड़ों को अपने वश में रखकर उनके द्वारा सुख पूर्वक मार्ग तै करता है, उसी प्रकार सावधान, धीर एवं साधन-कुशल पुरुष इन्द्रियों को वश में करके सुख से जीवन यात्रा पूर्ण करता है । जो धीर पुरुष अपने शरीर में नित्‍य विद्यमान छ: प्रमथन शील इन्द्रिय रुपी अश्रवों की बागडोर संभालता है, वही उत्तम सारथि हो सकता है । सड़क पर दौड़ने वाले घोड़ों की तरह विषयों में विचरने वाली इन इन्द्रियों को वश में करने के लिये धैर्य पूर्वक प्रयत्‍न करे। धैर्यपूर्वक उधोग करने वाले को उन पर अवश्‍य विजय प्राप्‍त होती है । जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्‍त पुरुष की बुद्धि हर लेती है । सभी मनुष्‍य इन छ: इन्द्रियों के शब्‍द आदि विषयों में उनसे प्राप्‍त होने वाले सुखरुप फल पाने के सम्‍बन्‍ध में मोह से संशय में पड़ जाते हैं। परंतु जो उनके दोषों का अनुसंधान करने वाला वीतराग पुरुष है, वह उनका निग्रह करके ध्‍यानजनित आनन्‍द का अनुभव करता है ।

इस प्रकार श्री महाभारत वन पर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेय समस्‍या पर्व में ब्राह्मण व्‍याध संवाद विषयक दो सौ ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।