महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 305 श्लोक 31-39
पञ्चाधिकत्रिशततम (305) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
सांख्य और योग के सम्पूर्ण विद्वान जिसको बुद्धि से परे बताते हैं, जो परम ज्ञानसम्पन्न है, अहंकार आदि जड़ तत्वों का परित्याग (बाध) कर देने पर शेष रहे हुए चिन्मय तत्व के रूप में जिसका बोध होता है, जो अज्ञात, अव्यक्त, सगुण ईश्वर, निर्गुण ईश्वर, नित्य और अधिष्ठाता कहा गया है, वह परमात्मा ही प्रकृति और उसके गुणों (चौबीस तत्वों) की अपेक्षा पचीसवाँ तत्व है, ऐसा सांख्य और योग में कुशल तथा परमतत्व की खोज करने वाले विद्वान पुरूष समझते हैं । जिस समय बाल्य, यौवन और वृद्धावस्था अथवा जन्म-मरण से भयभीत हुए विवेकी पुरूष चेतन-स्वरूप अव्यक्त परमात्मा के तत्व को ठीक-ठीक समझ लेते हैं, उस समय उन्हें परब्रह्म परमात्मा के स्वरूप की प्राप्ति हो जाती है । शत्रुओं का दमन करने वाले नरेश ! ज्ञानी पुरूषों का यह ज्ञान युक्तियुक्त होने के कारण उत्तम और (अज्ञानियों की धारणा से) पृथक है। इसके विपरीत अज्ञानी पुरूषों का जो अप्रमाणिक ज्ञान है, वह युक्तियुक्त न होने के कारण ठीक नहीं है। यह पूर्वोक्त सम्यक ज्ञान से पृथक है । क्षर और अक्षर के तत्व केा प्रतिपादन करने वाला यह दर्शन मैंने तुम्हें बताया है। क्षर और अक्षर में परस्पर क्या अन्तर है ? इसे इस प्रकार समझो- सदा एकरूप में रहने वाले परमात्मतत्व को अक्षर बताया गया है और नाना रूपों में प्रतीत होने वाला यह प्राकृत प्रपंच क्षर कहलाता है। जब यह पुरूष पचीसवें तत्वस्वरूप परमात्मा में स्थित हो जाता है, तब उसकी स्थिति उत्तम बतायी जाती है- वह ठीक बर्ताव करता है, ऐसा माना जाता है। एकत्व का बोध ही ज्ञान है और नानात्व का बोध ही अज्ञान है । तत्व (क्षर) और निस्तत्व (अक्षर) का यह पृथक-पृथक लक्षण समझना चाहिये। कुछ मनीषी पुरूष पचीस तत्वों को ही तत्व कहते हैं; परंतु दूसरे विद्वानों ने चौबीस जड़ तत्वों को तो तत्व कहा है और पचीसवें चेतन परमात्मा को निस्तत्व (तत्व से भिन्न ) बताया है। यह चैतन्य ही परमात्मा का लक्षण है। महतत्व आदि जो विकार है, वे क्षरतत्व हैं और परम पुरूष परमात्मा उन ‘क्षर’ तत्वों से भिन्न उनका सनातन आधार है ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में वसिष्ठकरालजनक संवाद विषयक तीन सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
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