महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 307 श्लोक 17-30

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सप्‍ताधिकात्रिशततम (307) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍ताधिकात्रिशततम अध्याय: श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद

विदेहराज ! उस समय त्रिगुणमयी प्रकृति क्षरत्‍व (नाश) को प्राप्‍त होती है और पुरूष भी गुणों में प्रवृत्‍त न होने के कारण निर्गुण (गुणातीत) हो जाता है । इस प्रकार जब क्षेत्र का ज्ञान नहीं रहता अर्थात् पुरूष को प्रकृति का ज्ञान नहीं रहता, तब वह स्‍वभाव से ही निर्गुण है— यह हमने सुन रखा है । जब यह पुरूष क्षर होता है, अर्थात् परमात्‍मा में लीन हो जाता है, उस समय वह प्रकृति के सगुणत्‍व को और अपने निर्गुणत्‍व को यथार्थ समझ लेता है । इस तरह ज्ञानवान् पुरूष जब यह जान लेता है कि मैं अन्‍य हूँ और यह प्रकृति मुझसे भिन्‍न है, तब वह प्रकृति से रहित हो जाने से अपने शुद्ध स्‍वरूप में स्थित होता है । राजेन्‍द्र ! प्रकृति से संयोग के समय उससे अभिन्‍न–सा प्रतीत होने के कारण यह पुरूष तद्रूपता को प्राप्‍त हुआ-सा जान पड़ता है, परंतु उस अवस्‍था में भी उसका प्रकृति के साथ मिश्रण नहीं होता, उसकी पृथक्ता बनी रहती है। इस प्रकार पुरूष प्रकृति के साथ संयुक्‍त और पुथक् भी दिखायी देता है । जब वह प्राकृत गुणसमुदाय को कुत्सित समझकर उससे विरत हो जाता है, उस समय वह परम दर्शनीय परमात्‍मा का दर्शन पा जाता है और उसको देखकर फिर भी उसका त्‍याग नहीं करता अर्थात् उससे अलग नहीं होता । (जिस समय जीवात्‍मा को विवेक होता है, उस समय वह यों विचार करने लगता है-) ‘ओह ! मैंने यह क्‍या किया ? जैसे मछली अज्ञानवश स्‍वयं ही जाकर जाल में फँस जाती है, उसी प्रकार मैं भी आज तक यहाँ इस प्राकृत शरीर का ही अनुसरण करता रहा । ‘जैसे मत्‍स्‍य पानी को ही अपने जीवन का मूल समझकर एक जलाशय से दूसरे जलाशय को जाता है, उसी तरह मैं भी मोहवश एक शरीर से दूसरे शरीर में भटकता रहा । ‘जैसे मत्‍स्‍य अज्ञान वश अपने को जल से भिन्‍न नहीं समझता, उसी प्रकार मैं भी अपनी अज्ञता के कारण इस प्राकृत शरीर से अपने को भिन्‍न नहीं समझता था। ‘मुझे मूढ़ को धिक्‍कार है; जो कि संसार सागर में डूबे हुए इस शरीर का आश्रय ले मोह वश एक शरीर से दूसरे शरीर का अनुसरण करता रहा । ‘वास्‍तव में इस जगत् के भीतर यह परमात्‍मा ही मेरा बन्‍धु है। इसी के साथ मेरी मैत्री हो सकती है। पहले मैं कैसा भी क्‍यों न रहा होऊँ, इस समय तो मैं इसकी समानता और एकता को प्राप्‍त हो चुका हूँ, जैसा वह है वैसा ही मैं हूँ। ‘इसी में मुझे अपनी समानता दिखायी देती है। मैं अवश्‍य इसके ही सदृश हूँ। यह परमात्‍मा प्रत्‍यक्ष ही अत्‍यन्‍त निर्मल है और मैं भी ऐसा ही हूँ । ‘मैं जो कि आसक्ति से सर्वथा रहित हूँ तो भी अज्ञान एवं मोह के वशीभूत होकर इतने समय तक इस आसक्तिमयी जड प्रकृति के साथ रमता रहा ।‘इतने मुझे इस तरह वश में कर लिया था कि मुझे आज तक के समय का पता ही न चला । यह तो उच्‍च, मध्‍यम तथा नीच सब श्रेणी के लोगों के साथ रहती है। भला, इसके साथ मैं कैसे रह सकता हूँ ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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