महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 317 श्लोक 1-12

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सप्तदशाधिकत्रिशततम (317) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तदशाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

विभिन्‍न अंगों से प्राणों के उत्‍क्रमण का फल तथा मृत्‍यु सूचक लक्षणों का वर्णन और मृत्‍यु को जीतने का उपाय

याज्ञवल्‍क्‍यजी कहते हैं — नरेश्‍वर ! देह-त्‍याग के समय मनुष्‍य के जिन-जिन अंगों से निकलकर प्राण जिन-जिन ऊर्ध्‍वलोकों में जाते हैं, उनके विषय में बता रहा हूँ; तुम सावधान होकर सुनो। पैरों के मार्ग से प्राणों के उत्‍क्रमण करने पर मनुष्‍य को भगवान् विष्‍णु के परमधाम की प्राप्ति होती बतायी जाती है। जिसके प्राण दोनों पिण्‍डलियों के मार्ग से बाहर निकलते हैं, वह वसु नाम देवताओं के लोक में जाता है; ऐसा हमने सुन रक्‍खा है । घुटनों से प्राणत्‍याग करने पर महाभाग साध्‍य-देवताओं के लोकों की प्राप्ति होती है। जिसके प्राण गुदामार्ग से निकल कर ऊपर की ओर जाते हैं, वह मित्र देवता के उत्‍तम स्‍थान को पाता है। कटि के अग्रभाग से प्राण निकलने पर पृथ्‍वीलोक की और दोनों जाँघों से निकलने पर प्रजापति लोक की प्राप्ति होती है। दोनों पसलियों से प्राणों का निष्‍क्रमण हो तो मरूत् नामक देवताओं की नाभि से हो तो इन्‍द्रपद की, दोनों भुजाओं से हो तो भी इन्‍द्रपद की ही और वक्ष:स्‍थल से हो तो रूद्रलोक की प्राप्ति होती है। ग्रीवा से प्राणों का निष्‍क्रमण होने पर मनुष्‍य मुनियों में श्रेष्‍ठ परम उत्‍तम नरका सांनिध्‍य प्राप्‍त करता है। मुख से प्राणत्‍याग करने पर वह विश्‍वेदेवों को और श्रोत्र से प्राण त्‍यागने पर दिशाओं की अधिष्‍ठात्री देवियों को प्राप्‍त होता है। नासिका से प्राणों का उत्‍क्रमण हो तो मनुष्‍य वायुदेवता को, दोनों नेत्रों से हो तो अग्नि देवता को, दोनों भौंहों से हो तो अश्विनी कुमारों को और ललाट से हो तो पितरों को प्राप्‍त होता है। मस्‍तक से प्राणों का परित्‍याग करने पर मनुष्‍य देवताओं के अग्रज भगवान् ब्रह्माजी के लोक को जाता है । मिथिलेश्‍वर ! ये प्राणों के निष्‍क्रमण के स्‍थान बताये गये हैं। अब मैं ज्ञानी पुरूषों द्वारा नियत किये हुए अमंगल अथवा मृत्‍यु को सूचित करने वाले उन चिह्रों का वर्णन करता हूँ, जो देहधारी के शरीर छूटने में केवल एक वर्ष शेष रह जाने पर उसके सामने प्रकट होते हैं। जो कभी पहले की देखी हुई अरून्‍धती और ध्रुव को न देख पाता हो तथा पूर्णचन्‍द्रमा का मण्‍डल और दीपक की शिखा जिसे दाहिने भाग से खण्डित जान पडे, ऐसे लोग केवल एक वर्ष तक जीवित रहने वाले होते हैं। पृथ्‍वीनाथ ! जो लोग दूसरे के नेत्रों में अपनी परछाई न देख सकें, उनकी आयु भी एक ही वर्ष तक शेष समझनी चाहिये। यदि मनुष्‍य की बहुत बढ़ी-चढ़ी कान्ति भी अत्‍यन्‍त फीकी पड़ जाय, अधिक बुद्धिमत्‍ता भी बुद्धिहीनता में परिणत हो जाय और स्‍वभाव में भारी उलट-फेर हो जाय तो यह उसके छ: महीने के भीतर ही होने वाली मृत्‍यु का सूचक है। जो काले रंग का होकर भी पीला पड़ने लगे, देवताओं का अनादर करे और ब्राह्माणों के साथ विरोध करे, वह भी छ: महीने से अधिक नहीं जी सकता, यह उक्‍त लक्षणों से सूचित होता है। जो मनुष्‍य सूर्य और चन्‍द्रमा के मण्‍डल को मकड़ी के जाले के समान छिद्रयुक्‍त देखता है, वह सात रात में ही मृत्‍यु का भागी होता है। जो देव मन्दिर में बैठकर वहाँ की सुगन्धित वस्‍तु में सड़े मुर्दे की-सी दुर्गन्‍ध का अनुभव करता है, वह सात दिन में ही मृत्‍यु को प्राप्‍त हो जाता है। नरेश्‍वर ! जिसके नाक और कान टेढ़े हो जायँ, दाँत और नेत्रों का रंग बिगड़ जाय, जिसे बेहोशी होने लगे, जिसका शरीर ठंडा पड़ जाय और जिसकी बायीं आँख से अकस्‍मात् आँसू बहने और मस्‍तक से धुआँ उठने लगे, उसकी तत्‍काल मृत्‍यु हो जाती है। उपर्युक्‍त लक्षण तत्‍काल होने वाली मृत्‍यु के सूचक हैं। इन मृत्‍युसूचक लक्षणों को जानकर मन को वश में रखने वाला साधक रात-दिन परमात्‍मा का ध्‍यान करे और जिस समय मृत्‍यु होने वाली हो, उस काल की प्रतीक्षा करता रहे। नरेश्‍वर ! यदि योगी को मृत्‍यु अभीष्‍ट न हो, अभी वह इस जगत् में रहना चाहे तो यह क्रिया करे । पूर्वोक्‍त रीति से पंचभूत विषयक धारणा करके पृथ्‍वी आदि तत्‍वों पर विजय प्राप्‍त करते हुए सम्‍पूर्ण गन्‍धों, रसों तथा रूप आदि विषयों को अपने वश में करे[१]। नरश्रेष्‍ठ ! सांख्‍य और योग के अनुसार धारणा- पूर्वक आत्‍मतत्‍व का ज्ञान प्राप्‍त करके ध्‍यान योग के द्वारा अन्‍तरात्‍मा को परमात्‍मा में लगा देने से योगी मृत्‍यु को जीत लेता है ऐसा करने से वह उस सनातन पद को प्राप्‍त करता है, जो अशुद्ध चित्‍तवाले पुरूषों को दुर्लभ है तथा जो अक्षय,अजन्‍मा,अचल,अविकारी, पूर्ण एंव कल्‍याणमय है।  

इस प्रकार श्री महाभारत शान्ति पर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्म पर्व में याज्ञवल्क्य और जनक का संवाद विषयक तीन सौ सतरहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. धारणा द्वारा पंचभूतों पर विजय या अधिकार प्राप्‍त करके योगी जन्‍म, जरा, मृत्‍यु आदि को जीत लेता है; इस विषय में यह सूत्र भी प्रमाण है— पृथ्व्यप्तेजोअनिलखे समुत्थिते पंचात्मे के योग गुणे प्रवृत्ते। न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु: प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम॥ ‘ध्‍यानयोग का साधन करते-करते जब पृथ्‍वी, जल, तेज, वायु, और आकाश-इन पाँच महाभूतों का उत्‍थान हो जाता है अर्थात् जब साधक का इन पाँचों महाभूतों पर अधिकार हो जाता है और इन पाँचों महाभूतों से सम्‍बन्‍ध रखने वाली योग विषयक पाँचों सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं, उस समय योगाग्निमय शरीर को प्राप्‍त कर लेने वाले उस योगी के शरीर में न तो रोग होता है, न बुढ़ापा आता है और न उसकी मृत्‍यु ही होती है । अभिप्राय यह कि इच्‍छा के बिना उसका शरीर नष्‍ट नहीं हो सकता (योगद ० ३ । ४६,४७) ।

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