महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 318 श्लोक 1-18

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अष्‍टादशाधिकत्रिशततम (318) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टादशाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

याज्ञवल्‍क्‍य द्वारा अपने को सूर्य से वेद ज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना, विश्‍वावसु को जीवात्‍मा और परमात्‍मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देकर उसका फल मुक्ति बताना तथा जनक को उपदेश देकर विदा होना

याज्ञवल्‍क्‍यजी कहते हैं—नरेश्‍वर ! तुमने जो मुझसे अव्‍यक्‍त में स्थित पर ब्रह्मा के विषय में प्रश्‍न किया है, वह अत्‍यन्‍त गूढ़ है । उसके विषय में ध्‍यान देकर सुनो। मिथिलापते ! पूर्वकाल में मैंने शास्‍त्रोक्‍त विधि से व्रत का आचरण करते हुए नतमस्‍तक होकर भगवान् सूर्य से जिस प्रकार शुक्‍लयजुर्वेद के मन्‍त्र उपलब्‍ध किये थे, वह सब प्रसंग सुनो। निष्‍पाप नरेश ! पहले की बात है, मैंने बड़ी भारी तपस्‍या करके तपने वाले भगवान् सूर्य की आराधना की थी। उससे प्रसन्‍न होकर भगवान् सूर्य ने मुझसे कहा— 'ब्रह्मार्षे ! तुम्‍हारी जैसी इच्‍छा हो, उसके अनुसार कोई वर माँगो। वह अत्‍यन्‍त दुर्लभ होने पर भी मैं तुम्‍हे दे दूँगा; क्‍योंकि मेरा मन तुम्‍हारी तपस्‍या से बहुत संतुष्‍ट है। मेरा कृपा-प्रसाद प्राय: दुर्लभ है’। तब मैंने मस्‍तक झुकाकर तपने वालों में श्रेष्‍ठ भगवान् सूर्य को प्रणाम किया और उनसे कहा—‘प्रभो ! मैं शीघ्र ही ऐसे यजुर्मन्‍त्रों का ज्ञान प्राप्‍त करना चाहता हूँ’ जो आज से पहले दूसरे किसी के उपयोग में नहीं आये हैं’। तब भगवान् सूर्य ने मुझसे कहा—‘ब्रह्मान् ! मैं तुम्‍हें यजुर्वेद प्रदान करता हूँ । तुम अपना मुँह खोलो। वाड्मयी सरस्‍वती देवी तुम्‍हारे शरीर में प्रवेश करेंगी।‘ यह सुनकर मैंने मुँह खोल दिया और सरस्‍वती देवी उसमें प्रविष्‍ट हो गयी। निष्‍पाप नरेश ! सरस्‍वती के प्रवेश करते ही मैं ताप से जलने लगा और जल में घुस गया। महात्‍मा भास्‍कर की महिमा को न जानने तथा अपने में सहनशीलता न होने के कारण मुझे उस समय विशेष कष्‍ट हुआ था। तदनन्‍तर मुझे ताप से दग्‍ध होता देख भगवान् सूर्य ने कहा—‘तात ! तुम दो घड़ी तक इस ताप को सहन करो। फिर यह स्‍वयं ही शीतल एवं शान्‍त हो जायगा’। जब मैं पूर्ण शीतल हो गया, तब मुझे देखकर भगवान् भास्‍कर ने कहा—‘विप्रवर ! खिल और उपनिषदों- सहित सम्‍पूर्ण वेद तुम्‍हारे भीतर प्रतिष्ठित होंगे। ‘द्विजश्रेष्‍ठ ! तुम सम्‍पूर्ण शतपथ का भी प्रणयन (सम्‍पादन) करोगे। इसके बाद तुम्‍हारी बुद्धि मोक्ष में स्थिर होगी। ‘तुम उस अभीष्‍ट पद को प्राप्‍त करोगे, जिसे सांख्‍यवेत्‍ता तथा योगी भी पाना चाहते हैं।‘ इतना कहकर भगवान् सर्यू नहीं अदृश्‍य हो गये। मैंने सूर्य देव का वह कथन सुना । फिर जब वे चले गये, मैंने घर आकर प्रसन्‍नतापूर्वक सरस्‍वती का चिन्‍तन किया। मेरे स्‍मरण करते ही स्‍वर और व्‍यंजन-वर्णों से विभूषित अत्‍यन्‍त मंगलमयी सरस्‍वती देवी ॐकार को आगे करके मेरे सम्‍मुख प्रकट हुई। तब मैंने सरस्‍वती देवी तथा तपने वालों में श्रेष्‍ठ भगवान् भास्‍कर को अर्घ्‍य निवेदन किया और उन्‍हीं का चिन्‍तन करता हुआ बैठ गया। उस समय बडे़ हर्ष के साथ मैंने रहस्‍य, संग्रह और परिशिष्‍ट भागसहित समस्‍त शतपथ का संकलन किया। महाराज ! तदनन्‍तर मैंने अपने सौ उत्‍तम शिष्‍यों को शतपथ का अध्‍ययन कराया । इसके बाद शिष्‍यसहित अपने महामनस्‍वी मामा का (जो पहले मुझे तिरस्‍कृत कर चुके थे) अप्रिय करने के लिये किरणों से प्रकाशित होने वाले सूर्य की भाँति शिष्‍यों से सुशोभित हो मैंने तुम्‍हारे पिता महात्‍मा राजा जनक के यज्ञ का अनुष्‍ठान कराया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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