महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 16-31
विंशत्यधिकत्रिशततम (320) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
सुलभा मोक्षधर्म के विषय में राजा से कुछ पूछना चाहती थी। उसके मन में यह संदेह था कि राजा जनक जीवन मुक्त हैं या नहीं। वह योगशक्तियों की जानकर तो थी ही, अपनी सूक्ष्म बुद्धिद्वारा राजा की बुद्धि में प्रविष्ट हो गयी। राजा जनक से प्रश्न करने के लिये उद्यत हो उसने अपने नेत्रों की किरणों द्वारा उनके नेत्रों की किरणों को संयत करके योगबल से उनके चित्त को बाँधकर उन्हें वश में कर लिया। नृपश्रेष्ठ ! तब राजा जनक ने सुलभा के अभिप्राय को जानकर उसका आदर करते हुए मुस्कराकर अपने भावद्वारा उसके भाव को ग्रहण कर लिया। फिर छत्र आदि राज चिह्न से रहित हुए राजा जनक और त्रिदण्डरूप संन्यास-चिह्न से मुक्त हुई सुलभा का एक ही शरीर में रह कर जो संवाद हुआ था, उसे सुनो। जनकने पूछा—भगवति ! आपको यह संन्यास की दीक्षा कहाँ से प्राप्त हुई है, आप कहाँ से जायँगी ? किसकी हैं और कहाँ से यहाँ आपका शुभागमन हुआ है ? ये सब बातें राजा जनक ने सुलभा से पूछीं। वे बोले, किसी से पूछे बिना उसके शास्त्रज्ञान, अवस्था और जाति के विषय में सच्ची बात नहीं मालूम होती; अत: मेरे साथ जो तुम्हारा समागम हुआ है, इस अवसर पर इन सब विषयों की जानकारी के लिये यथार्थ उत्तर जनना आवश्यक है। छत्र आदि जो विशेष राजोचित चिह्न हैं, उन्हें इस समय मैं त्याग चुका हूँ; अत: अब आप मुझे यथार्थरूप से जान लें। मैं आपका सम्मान करना चाहता हूँ; क्योंकि आप मुझे सम्मान के योग्य जान पड़ती हैं। मैंने पूर्वकाल में सर्वश्रेष्ठ मोक्ष विषयक ज्ञान जिनसे प्राप्त किया था, जिसका उनके सिवा दूसरा कोई प्रतिपादन करने वाला नहीं है, उस ज्ञान और ज्ञानदाता गुरू का भी परिचय आप मुझे सुनो। पराशर गोत्री संन्यास-धर्मावलम्बी वृद्ध महात्मा पंचशिख मेरे गुरू हैं। मैं उनका परम प्रिय शिष्य हूँ। सांख्य ज्ञान, योगविद्या तथा राजधर्म—इन तीन प्रकार के मोक्षधर्म में मुझे गन्तव्य मार्ग गुरूदेव से प्राप्त हो चुका है । इन विषयों के मेरे सारे संशय दूर हो गये हैं। पहले की बात है, वे आचार्य चरण शास्त्रोक्त मार्ग से चलते हुए घूमते-घामते इधर आ निकले और वर्षा-ॠतु के चार महिने मेरे यहाँ सुखपूर्वक रहे। वे सांख्यशास्त्र के प्रमुख विद्वान् हैं और सारा सिद्धान्त उन्हें यथावत् रूप से प्रत्यक्ष की भाँति ठीक-ठीक ज्ञात है। उन्होंने मुझे त्रिविध मोक्षधर्म श्रवण कराया है, परंतु राज्य से दूर हटने की आाज्ञा नहीं दी है। इस प्रकार उपदेश पाकर मैं विषयों की आसक्ति से रहित हो मुक्ति विषयक तीन प्रकार की समस्त वृत्तियों का आचरण करता हूँ और अकेला परमपद में स्थित हूँ। वैराग्य ही इस मुक्ति का प्रधान कारण है और ज्ञान से ही वह वैराग्य प्राप्त होता है, जिससे मनुष्य मुक्त हो जाता है। मनुष्य ज्ञान के द्वारा मुक्ति पाने के लिये यत्न करता है। उस यत्न से महान् आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। वह महान् आत्मज्ञान ही सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वों से छुटकारा दिलाने का साधन है, वही सिद्धि है, जो काल (मृत्यु)-को भी लाँघ जाने वाली है। मेरा मोह दूर हो गया है । मैं समस्त संसर्गों का त्याग कर चुका हूँ; इसलिये मैंने इस गृहस्थ धर्म में रहते हुए ही बुद्धि की परम निर्द्वन्द्वता प्राप्त कर ली है।
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