महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 299 श्लोक 1-14

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०४:४७, १ अगस्त २०१५ का अवतरण ('==नवनवत्‍यधिकद्विशततम (299) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षध...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

नवनवत्‍यधिकद्विशततम (299) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: नवनवत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

हंसगीता-हंसरूपधारी ब्रह्माका साध्‍यगणों को उपदेश

युधिष्ठिर ने पूछा - पितामह ! संसार में बहुत-से विद्वान सत्‍य, इन्द्रिय-संयम, क्षमा और प्रज्ञा (उत्‍तम बुद्धि)- की प्रशंसा करते हैं। इस विषय में आपका कैसा मत है ? भीष्‍म जी ने कहा- युधिष्ठिर ! इस विषय में साध्‍यगणों का हंस के साथ जो संवाद हुआ था, वही प्राचीन इतिहास मैं तुम्‍हें सुना रहा हूँ । एक समय नित्‍य अजन्‍मा प्रजापति सुवर्णमय हंस का रूप धारण करके तीनों लोकों में विचर रहे थे। घूमते-घामते वे साध्‍यगणों के पास जा पहुँचे । उस समय साध्‍यों ने कहा - हंस ! हमलोग साध्‍य देवता हैं और आपसे मोक्षधर्म के विषय में प्रश्‍न करना चाहते हैं; क्‍योंकि आप मोक्ष-तत्‍व के ज्ञाता हैं, यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है । महात्‍मन ! हमने सुना है कि आप पण्डित और धीर वक्‍ता हैं। पतत्रिन् ! आपकी उत्‍तम वाणी का सर्वत्र प्रचार है। पक्षिप्रवर ! आपके मत में सर्वश्रेष्‍ठ वस्‍तु क्‍या है ? आपका मन किसमें होता है ? पक्षिराज ! खगश्रेष्‍ठ ! समस्‍त कार्यों में से जिस एक कार्य को आप सबसे उत्‍तम समझते हों तथा जिसके करने से जीव को सब प्रकार के बन्‍धनों से शीघ्र छुटकारा मिल सके, उसी का हमें उपदेश कीजिये । हंस ने कहा- अमृतभोजी देवताओं ! मैं तो सुनता हूँ कि तप, इन्द्रियसंयम, सत्‍यभाषण और मनोनिग्रह आदि कार्य ही सबसे उत्‍तम हैं। हृदय की सारी गॉंठें खोलकर प्रिय और अप्रिय को अपने वश में करे अर्थात उनके लिये हर्ष एवं विषाद न करे । किसी के मर्म में आघात न पहुँचाये। दूसरों से निष्‍ठुर वचन न बोले। किसी नीच मनुष्‍य से अध्‍यात्‍मशास्‍त्र का उपदेश न ग्रहण करे तथा जिसे सुनकर दूसरों को उद्वेग हो, ऐसी नरक में डालने वाली अमंगलमयी बात भी मुँह से न निकाले । वचनरूपी बाण जब मुँह से निकल पड़ते हैं, तब उनके द्वारा बींधा गया मनुष्‍य रात-दिन शोक में डूबा रहता है; क्‍योंकि वे दूसरों के मर्म पर आघात पहुँचाते हैं, इसलिये विद्वान पुरूष को किसी दूसरे मनुष्‍य पर वाग्‍बाण का प्रयोग नहीं करना चाहिये । दूसरा कोई भी यदि इस विद्वान पुरूष को कटुवचन रूपी बाणों से बहुत अधिक चोट पहुँचाये तो भी उसे शान्‍त रहना चाहिये। जो दूसरों के क्रोध करने पर भी स्‍वयं बदले में प्रसन्‍न ही रहता है, वह उसके पुण्‍य को ग्रहण कर लेता है । जो जगत में निन्‍दा कराने वाले और आवेश में डालने के कारण अप्रिय प्रतीत होने वाले प्रज्‍वलित क्रोध को रोक लेता है, चित्त में कोई विकार या दोष नहीं आने देता, प्रसन्‍न रहता और दूसरों के दोष नहीं देखता है, वह पुरूष अपने प्रति शत्रुभाव रखने वाले लोगों के पुण्‍य ले लेता है । मुझे कोई गाली दे तो भी बदले में कुछ नहीं कहता हूँ। कोई मार दे तो उसे सदा क्षमा ही करता हूँ; क्‍योंकि श्रेष्‍ठ जन क्षमा, सत्‍य, सरलता और दया को ही उत्‍तम बताते हैं । वेदाध्‍ययन का सार है सत्‍यभाषण, सत्‍यभाषण का सार है इन्द्रियसंयम और इन्द्रियसंयम का फल है मोक्ष। यही सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों का उपदेश है । जो वाणी का वेग, मन और क्रोध का वेग, तृष्‍णा का वेग तथा पेट और जननेन्द्रिय का वेग-इन सब प्रचण्‍ड वेगों को सह लेता है, उसी को मैं ब्रह्मवेता और मुनि मानता हूँ ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।