महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 321 श्लोक 16-28
विंशत्यधिकत्रिशततम (321) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
जो नास्तिक हो, धर्म की मर्यादा भंग कर रहा हो और किनारे को तोड़–फोड़कर गिरा देने वाले नदी के महान् जल-प्रवाह की भाँति स्थित हो, ऐसे मनुष्य को उखाडे़ हुए बाँस की तरह बिना किसी हिचक के त्याग दो। काम, क्रोध, मृत्यु और जिसमें पाँच इन्द्रियरूपी जल भरा हुआ है, ऐसी विषयासक्तिरूपी नदी को तुम सात्वि की धृतिरूप नौका का आश्रय ले पार कर लो और इस प्रकार जन्म- मृत्युरूपी दुर्गम संकट से पार हो जाओ। सारा संसार मृत्यु के थपेडे़ खाता हुआ वृद्वावस्था से पीडित हो रहा है । ये रातें प्राणियों की आयु का अपहरण करके अपने को सफल बनाती हुई बीत रही हैं । तुम धर्मरूपी नौका पर चढ़कर भवसागर से पार हो जाओ। मनुष्य खड़ा हो या सो रहा हो, मृत्यु निरन्तर उसे खोजती फिरती है । जब इस प्रकार तुम अकस्मात् मृत्यु ग्रास बन जाने वाले हो, तब इस तरह निश्चिन्त एवं शान्त कैसे बैठे हो ? मनुष्य भोगसामग्रियों के संचय में लगा ही रहता है और उनसे तृप्त भी नहीं होने पाता है कि भेड़ के बच्चे को उठा ले जाने वाली वाघिन की भाँति मौत उसे अपनी दाढ़ में दबाकर चल देती है। यदि तुम्हें इस संसाररूपी अन्धकार में प्रवेश करना है तो हाथ में उस धर्म-बुद्धिमय महान् दीपक को यत्न पूर्वक धारण कर लो, जिसकी शिखा क्रमश: प्रज्वलित हो रही है। बेटा ! जीव अनेक प्रकार की शरीर में जन्मता-मरता हुआ कभी इस मानव-योनि में आकर ब्राह्माण का शरीर पाता है, अत: तुम ब्राह्मणोचित कर्तव्य का पालन करो। ब्राह्माण का यह शरीर भोग भोगने के लिये नहीं पैदा होता है । यह तो यहाँ क्लेश उठाकर तपस्या करने और मृत्यु के पश्चात् अनुपम सुख भोगने के लिये रचा गया है। बहुत समय तक बड़ी भारी तपस्या करने से ब्राह्माण का शरीर मिलता है । उसे पाकर विषयानुराग में फँसगर बरबाद नहीं करना चाहिये । अत: यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो कुशलप्रद कर्म में संलग्न हो सदा स्वाध्याय, तपस्या और इन्द्रिय संयम में पूर्णत: तत्पर रहने का प्रयत्न करो। मनुष्यों आयु रूप अश्व बड़े वेग से दौड़ा जा रहा है । इसका स्वभाव अव्यक्त है । कला-काष्ठा आदि इसके शरीर हैं । इसका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है । क्षण, त्रुटि (चुटकी) और निमेष आदि इसके रोम हैं । ऋतुएँ मुख हैं । समान बलवाले शुक्ल और कृष्ण पक्ष नेत्र हैं तथा महीने इसके विभिन्न अंग हैं । वह भयंकर वेगशाली अश्व यहाँ की किसी वस्तु की अपेक्षा न रखकर निरन्तर अविराम गति से वेगपर्वूक भागा जा रहा है । उसे देखकर यदि तुम्हारी ज्ञानदृष्टि दूसरे के द्वारा चलाने पर चलने वाली नहीं है; तो तुम्हारा मन धर्म में ही लगना चाहिये । तुम दूसरे धर्मात्माओं पर भी दृष्टि डालो। जो लोग यहाँ धर्म से विचलित हो स्वेच्छाचार में लगे हुए हैं, दूसरों को बुरा-भला कहते हुए सदा अनिष्टकारी अशुभ कर्मों में ही लगे हुए हैं, वे मरने के बाद यातनादेह पाकर अपने अनेक पापकर्मों के कारण अत्यन्त क्लेश भोगते हैं। जो राजा सर्वदा धर्म परायण रहकर उत्तम और अधम प्रजाका यथायोग्य विचारपूर्वक पालन करता है, वह पुण्यात्माओं के लोकों प्राप्त होता है । यदि वह स्वयं भी नाना प्रकार के शुभ कर्मों का आचरण करता है तो उसके फलस्वरूप उसे अप्राप्त एवं निदोष सुख प्राप्त होता है।
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