महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 321 श्लोक 58-71

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एकविंशत्‍यधिकत्रिशततम (321) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकविंशत्‍यधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 58-71 का हिन्दी अनुवाद

वहाँ अपने कर्म के अनुसार जो फल प्राप्‍त होता है, उसका किसी के साथ बँटवारा नहीं होता । वहाँ तो अपने किये हुए कर्मों का ही फल भोगना होता है। जैसे महर्षियों के साथ झुंड-की-झुंड अप्‍सराएँ होती हैं और वे सुख पुण्‍य के फलस्‍वरूप सुख भोगते हैं, उसी प्रकार वहाँ पुण्‍यात्‍मा लोक विमानों पर चढ़कर इच्‍छानुसार विचरते और पुण्‍यकर्म जनित सुख भोगते हैं। निष्‍पाप पुण्‍यात्‍मा पुरूषों द्वारा इस लोक में जो शुभ कर्म सम्‍पादित होता है, जन्‍मान्‍तर में विशुद्ध योनि में जन्‍म लेकर उसका वैसा ही फल पाते हैं। गृहस्‍थ-धर्म की मर्यादा का पालन करने वाले लोग प्रजापति,बृहस्‍पति अथवा इन्‍द्र के लोक में उत्‍तम गति को प्राप्‍त होते हैं। वत्‍स ! मैं तुम्‍हारे सामने हजारो तथा उससे भी अधिक बार यह बात जोर देकर कह सकता हूँ कि सर्वशक्तिमान् तथा सबको पवित्र करने वाले धर्म ने, जिसकी बुद्धि पर मोह नहीं छा गया है, उस धर्मात्‍मा पुरूष को सदा ही पुण्‍य लोक में पहुँचाया है। बेटा ! तुम्‍हारी आयु के चौबीस वर्ष बीत गये । अब निश्‍चय ही तुम पचीस साल के हो गये; अत: धर्म का संचय करो । तुम्‍हारी सारी आयु यों ही बीती जा रही है। देखो, तुम्‍हारा जो प्रसाद है, उसमें निवास करने वाला काल तुम्‍हारी इन्द्रियों के समुदाय को मुख रहित (भोगशक्ति से हीन) कर रहा है । इनके असमर्थ हो जाने के पहले ही तुम खडे़ हो जाओ और अपने शरीर से धर्म का पालन करने के लिये जल्‍दी करो। जिस समय तुम शरीर छोड़कर परलोक की राह लोगे, उस समय तुम्‍हीं पीछे रहोगे और तुम्‍हीं आगे चलोगे—तुम्‍हारे सिवा दूसरा कोई वहाँ आगे-पीछे चलने वाले न होगा। ऐसी दशा में किसी अपने या पराये व्‍यक्ति से तुम्‍हारा क्‍या प्रयोजन है ? भय उपस्थित होने पर अकेले यात्रा करने वाले सत्‍पुरूषों के लिये परलोक में जो हितकर होता है, उस धर्म या ज्ञान की निधि को शुद्धभाव से संचित करो। सर्वसमर्थ काल किसी के प्रति भी स्‍नेह नहीं करता। वह कूल और मूल अर्थात् आदि-अन्‍तसहित समस्‍त बन्‍धु-बान्‍धवों को हर ले जाता है । उसको रोकने वाले कोई नहीं हैं; इसलिये तुम धर्म का संचय करो। बेटा ! मैंने अपने शास्‍त्रज्ञान और अनुमान के द्वारा इस समय तुम्‍हें जिस ज्ञान का उपदेश किया है, तुम उस के अनुसार आचरण करो। जो पुरूष अपने सत्‍कर्मों द्वारा धर्म को धारण करता है और जिस किसी को भी निष्‍काम भाव से दान देता है, वह अकेला ही मोहररहित बुद्धि से प्राप्‍त होने वाले गुणों से संयुक्‍त होता है। जो समस्‍त शास्‍त्रों का ज्ञान प्राप्‍त करता और तदनुसार शुभ कर्मों के अनुष्‍ठान में लगा रहता है, उसी के लिये इस ज्ञान का उपदेश दिया गया है; क्‍योंकि कृतज्ञ पुरूष को जो भी उपदेश दिया जाता है, वही सफल होता है। मनुष्‍य जब गाँव में रहकर वहीं के पदार्थो से प्रेम करने लगता है, वह उसे बाँधने वाली रस्‍सी ही है । पुण्‍यात्‍मा लोग इसे काटकर उत्‍तम लोकों में चले जाते हैं, परंतु पापात्‍मा पुरूष इसे नहीं काट पाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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