महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 324 श्लोक 1-21

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चतुर्विंशत्‍यधिकत्रिशततम (324) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्विंशत्‍यधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

शुकदेवजी की उत्‍पत्ति और उनके यज्ञो पवीत, वेदाध्‍ययन एवं समावर्तन- संस्‍कार का वृत्तान्‍त

भीष्‍मजी कहते हैं—राजन् ! महादेवजी से उत्तम वह पाकर एक दिन सत्‍यवतीनन्‍दन व्‍यासजी अग्नि प्रकट करने की इच्‍छा से दो अरणी काष्‍ठ लेकर उनका मन्‍थन करने लगे। नरेश्‍वर ! इसी समय उन भगवान् महर्षि व्‍यासने वहाँ आयी हुई घृताची नामक अप्‍सरा को देखा, जो अपने तेज से परम मनोहर रूप धारण किये हुए थी। युधिष्ठिर ! उस वन मे उस अप्‍सरा को देखकर ऋषि भगवान् व्‍यास सहसा काम से मोहित हो गये । महाराज ! उस समय व्‍यासजी का हृदय काम से व्‍याकुल हुआ देख घृताजी अप्‍सरा शुकी होकर उनके पास आयी। उस अप्‍सरा को दूसरे रूप से छिपी हुई देख उनके सम्‍पूर्ण शरीर में कामवेदना व्‍याप्‍त हो गयी। मुनिवर व्‍यास महान् धैर्य के साथ अपने कामवेग को रोकने लगे; परंतु अप्‍सरा की ओर गये हुए मन को रोकने में वे किसी तरह समर्थ न हो सके। होनहार होकर ही रहती है; इसलिये व्‍यासजी घृताची के रूप से आकृष्‍ट हो गये । अग्नि प्रकट करने की इच्‍छा से अपने काम वेग को यत्‍नपूर्वक रोकते हुए महर्षि व्‍यासका वीर्य सहसा उस अरणीकाष्‍ठ पर ही गिर पड़ा। नरेश्‍वर ! उस समय भी द्विजश्रेष्‍ठ ब्रह्मार्षि व्‍यास नि:शंक मन से दोनों अरणियों के मन्‍थन में ही लगे रहे । उसी समय अरणी से शुकदेवजी प्रकट हो गये। अरणी के साथ-साथ शुक्र का भी मन्‍थन होने से महातपस्‍वी तथा महायोगी परम ऋषि शुकदेवजी का जन्‍म हो गया । वे अरणी के ही गर्भ से प्रकट हुए। जैसे यज्ञ में हविष्‍य का वहन करने वाली प्रज्‍वलित अग्नि प्रकाशित होती है, वैसे ही रूप से शुकदेव जी प्रकट हुए थे । वे अपने तेज से मानो जाज्‍वल्‍यमान हो रहे थे। कुरूनन्‍दन ! अपने पिता के समान ही परम उत्तम रूप और कान्ति धारण किये पवित्रात्‍मा शुकदेव धूमरहित अग्नि के समान देदीप्‍यमान हो रहे थे। जनेश्‍वर ! उसी समय सरिताओं में श्रेष्‍ठ श्रीगंगाजी मूर्तिमती होकर मेरूपर्वत पर आयीं और उन्‍होंने अपने जल से शुकदेवजी को तृप्‍त किया। कुरूनन्‍दन ! राजेन्‍द्र ! आकाश से महात्‍मा शुकदेव के लिय दण्‍ड और काला मृगचर्म—ये दोनों वस्‍तुएँ पृथ्‍वी पर गिरीं। गन्‍धर्व गाने और अप्‍सराएँ नृत्‍य करने लगीं । देवताओं की दुंदुभियाँ बडे़ जोर-जोर से बज उठीं । विश्‍वावसु, तुम्‍बुरू, नारद, हाहा और हूहू आदि गन्‍धर्व शुकदेवजी के जन्‍म की बधाई गाने लगे। इन्‍द्र आदि सम्‍पूर्ण लोकपाल, देवता देवर्षि और ब्रह्मार्षि भी वहाँ आये। वायु ने सब प्रकार के दिव्‍य पुष्‍पों की वर्षा की । चर और अचर सारा संसार हर्ष से खिल उठा। तब महातेजस्‍वी महात्‍मा भगवान् शंकर ने देवी पार्वती के साथ स्‍वयं प्रसन्‍नतापूर्वक पधारकर महर्षि व्‍यास के उस नवजात पुत्र का विधिपूर्वक उपनयन-संस्‍कार किया। प्रभो ! उस समय देवेश्‍वर इन्‍द्र ने उन्‍हें प्रेमपूर्वक दिव्‍य एवं अद्भूत कमण्‍डलु तथा देवोचित वस्‍त्र प्रदान किये। भारत ! सहस्‍त्रों हंस, शतपत्र, सारस, शुक और नीलकण्‍ड आदि पक्षी उनकी प्रदक्षिणा करने लगे। तदनन्‍तर महातेजस्‍वी अरणिसम्‍भूत शुक वह दिव्‍य जन्‍म पाकर ब्रह्माचर्य की दीक्षा ले वहीं रहने लगे । वे बडे़ बुद्धिमान्, व्रतपालक तथा चित्‍त को एकाग्र रखने वाले थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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